जिंदगी की राहें

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Wednesday, January 15, 2014

“छमिया”

दिल्ली फिल्म फेस्टिवल से खींची गई तस्वीर
"छमिया" ही तो कहते हैं
मोहल्ले से निकलने वाले
सड़क पर, जो ढाबा है
वहाँ पर चाय सुड़कते
निठल्ले छोरे !
जब भी वो निकलती है
जाती है सड़क के पार
बरतन माँजने
केदार बाबू के घर !!

एक नवयुवती होने के नाते
हिलती है उसकी कमर
कभी कभी खिसकी होती है
उसकी फटी हुई चोली
दिख ही जाता है जिस्म
जब होती है छोरों की नजर
पर इसके अलावा
कहाँ वो सोच पाते हैं
भूखी है उसकी उदर !!

आजकल छमिया” भी
जानबूझ कर
मटका देती हैं आंखे
साथ ही लहरा देती है
वो रूखे बालों वाली चोटी
जो छोरों के दिल में
ला देती है कहर
आखिर घूरती आँखों
के जहर
से, वो शायद हो गई
है, बेअसर !!

छमिया आखिर समझने
लगी है
मिटाने के लिए भूख
भरने के लिए उदर
जरूरी है ये सफर

अंतहीन सफर !!!   

दिल्ली फिल्म फेस्टिवल से खींची गई तस्वीर

11 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

कड़वा यथार्थ.....
आँखें फेरने को जी करता है :-(

सार्थक रचना!!

सस्नेह
अनु

Rajendra kumar said...

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.01.2014) को " सपनों को मत रोको (चर्चा -1495)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।

mridula pradhan said...

achchi lagi kavita......bhawpoorn.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

काश!! छमिया ने अपने सम्मान और शील का समझौता न किया होता!!

दिगम्बर नासवा said...

कडुआ सच ... पर आज का सच ...

Unknown said...

sach ko ujagar karti rachna...jine ki jijivisha ko liye chalti jindgi...jane kitne nam par satya yek....

spjain said...

ek katoo satya

spjain said...

ek katoo satya

प्रवीण पाण्डेय said...

जनदृष्टि के कंटकों से होकर जाता सौन्दर्य का पथ।

Anju (Anu) Chaudhary said...

''छमिया'' नज़र आई ....पर उसकी मजबूरी नज़र नहीं आई ????

संजय भास्‍कर said...

सार्थक रचना!!