दिल्ली फिल्म फेस्टिवल से खींची गई तस्वीर |
"छमिया" ही तो कहते
हैं
मोहल्ले से निकलने वाले
सड़क पर, जो ढाबा है
वहाँ पर चाय सुड़कते
निठल्ले छोरे !
जब भी वो निकलती है
जाती है सड़क के पार
बरतन माँजने
केदार बाबू के घर !!
एक नवयुवती होने के नाते
हिलती है उसकी कमर
कभी कभी खिसकी होती है
उसकी फटी हुई चोली
दिख ही जाता है जिस्म
जब होती है छोरों की नजर
पर इसके अलावा
कहाँ वो सोच पाते हैं
भूखी है उसकी उदर !!
आजकल “छमिया”” भी
जानबूझ कर
मटका देती हैं आंखे
साथ ही लहरा देती है
वो रूखे बालों वाली चोटी
जो छोरों के दिल में
ला देती है कहर
आखिर घूरती आँखों
के जहर
से, वो शायद हो गई
है, बेअसर !!
“छमिया” आखिर समझने
लगी है
मिटाने के लिए भूख
भरने के लिए उदर
जरूरी है ये सफर
अंतहीन सफर !!!
दिल्ली फिल्म फेस्टिवल से खींची गई तस्वीर |
11 comments:
कड़वा यथार्थ.....
आँखें फेरने को जी करता है :-(
सार्थक रचना!!
सस्नेह
अनु
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.01.2014) को " सपनों को मत रोको (चर्चा -1495)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।
achchi lagi kavita......bhawpoorn.
काश!! छमिया ने अपने सम्मान और शील का समझौता न किया होता!!
कडुआ सच ... पर आज का सच ...
sach ko ujagar karti rachna...jine ki jijivisha ko liye chalti jindgi...jane kitne nam par satya yek....
ek katoo satya
ek katoo satya
जनदृष्टि के कंटकों से होकर जाता सौन्दर्य का पथ।
''छमिया'' नज़र आई ....पर उसकी मजबूरी नज़र नहीं आई ????
सार्थक रचना!!
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