
एकांत में बैठे-बैठे सोचा
काश! मैं होता ऐसा चित्रकार
कि हाथ में होती तक़दीर की ब्रश
और सामने होती, एक ऐसी कैनवस
जो होती खुद की ज़िन्दगी
जिसमें मैं रंग पाता अपनी चाहत
भर पाता वो कुछ खास रंग,
जो होते मेरे सपने, होते जो बेहद अपने
जरूरत होती कुछ चटक रंगों की
लाल, पीले, हरे, नारंगी
या सुर्ख सुफैद व आसमानी
जैसे शांत सौम्य रंग
ताकि मेरे तक़दीर की ब्रश
सजा पाए ज़िन्दगी को
जहाँ से झलके बहुत सारी खुशियाँ
सिर्फ खुशियाँ !!
तभी किसी ने दिलाया याद
इन चटक और सौम्य रंगों के मिश्रण में
है एक और रंग की जरूरत
जिसे कहते हैं "स्याह काला"
जो है रूप अंधकार का
जो देता है विरोधाभास
ताकि जिंदगी में हो सब-सब
मलिन, निराशाजनक, अंधेरा, विषादपूर्ण
तब आया समझ
जब तक दुःख न होगा
दर्द न होगा
नहीं भोग पाएंगे सुख
अहसास न हो पायेगा ख़ुशी का
और इस तरह
मैंने अपने सोच को समझाया
अब हूँ मैं खुश, प्रफुल्लित
अपनी ज़िन्दगी से
अपने इस रंगीन कैनवस से
जिसमें भरे है मैंने सारे रंग
दुःख के भी
दर्द के भी
साथ में सहेजे हैं,
खुशियों के कुछ बेहतरीन पल..............!!!
