जिंदगी की राहें

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Tuesday, May 23, 2017

स्किपिंग रोप: प्रेम का घेरा





स्किपिंग रोप
कूदते समय रस्सी
ऊपर से उछल कर
पैरों के नीचे से
जाती है निकल 
जगाती है
अजब सनसनाती सिहरन
एक उत्कंठा कि वो घेरा
तना रहे लगातार
एक दो तीन ... सौ, एक सौ एक
इतनी देर लगातार !!
बैलेंस और
लगातार उछाल का मेल
धक् धक् धौंकनी सी भर जाती है ऊर्जा!
जैसे एक कसा हुआ घेरा
गुदाज बाहों का समर्पण
आँखे मूंदें खोये
हम और तुम !!
उफ़, सी-सॉ का झूला
अद्भुत सी फीलिंग
साँसे आई बाहर, और रह गयी बाहर
ऐसे ही झूलते रहा मैं
तुम भी ! चलो न !
फिर से गिनती गिनो, बेशक ...
बस पूरा मत करना !!
काश होती वो रस्सी थामे तुम और
.....और क्या ?
मैं बस आँखे बंद किये बुदबुदाता रहता
एक दो तीन चार पांच...............निन्यानवे ...........एक सौ तेरह ...!!