जिंदगी की राहें

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Thursday, February 4, 2010

~ लाइफ इन मेट्रो ~

कल की ही तो बात थी,
इस बड़े मानव जंगल में
सूर्यास्त के समय
रोड़े पत्थर के जंगलो के
बीच चलता जा रह था
एक आम जानवर की तरह
अपनी मांद की ऑर!!
.
तभी चौंका!
रस्ते में पड़ी थी
मेरे जैसे एक जानवर की "लाश"!!
घेर रखा था बहुतो ने........
शायद किसी अत्याचारी शिकारी ने
कर दिया था शिकार!
हो गया था बेचारा ढेर,
खून से लथ-पथ
निस्तेज, निर्विकार!!
.
उफ़!! चारो ऑर था!
कलरव, कोलाहल! मचा हुआ
परन्तु जो थे उसके चारो ऑर
वो भी थे तो जानवर ही
क्योंकि चिल्ला रहे थे
चीख रहे थे
पर, फिर खिसक रहे थे, चुपचाप..
जैसे वो ऐसे हादसे से थे बिलकुल अनभिज्ञ .......
.
मैं भी रुका,
हुआ स्तंभित!!
एक टीस सी उठी मन में!
अन्दर से एक हलकी सी आवाज आई --
"भगवन! इसकी आत्मा को शांति देना!"
लेकिन फिर! मैं भी
बढ़ गया आगे, धीरे से
आखिर मैं भी तो हूँ
इसी मानव जंगल का हिस्सा
भावना- शून्य !!
"एक जानवर"....................!!
.