जिंदगी की राहें

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Tuesday, April 19, 2011

एक पुरानी संदुकची

घर की सफाई
और फिर गलती से मिली
एक पुरानी संदुकची
था जंग लगा ताला
जिसकी चाभी हो गयी थी ग़ुम
पड़ा हल्का सा हाथ
खुल गया ताला
एक दम से चलचित्र के भांति
आ गए सामने
वो दिन, वो अतीत
चाय का कप
कप के नीचे
छूती हुई दो उँगलियों का स्पर्श
दिए हुए उपन्यास के पन्ने
जिस पर बने होते थे
छोटे छोटे प्रेम के प्रतीक
या रखी होती थी
सुखी गुलाब की पंखुडियां
झिलमिलाया एक
नाजुक फुल सा चेहरा
बारिश की बूंदों से भींगी लटें
और कुछ यादगार बीते लम्हें
और संदुकची में थे...
कुछ पीले हो चुके जर्द पन्ने,
पुरानी तस्वीरें, कुछ उपहार
पन्नो में थे सहेजे हुए शब्द
जो कहना था उसे
पर कह नहीं पाया
या समझ लो
उस तक पहुँच नहीं पाया
ख़त की स्याही हो चुकी थी धुंधली
पर याद अभी भी ...
एक दम से हो चुकी थी चटख
पर सुनो तो
मैंने फिर से उस संदुकची में
लगा दिया एक नया ताला
क्योंकि उन सहेजे यादों
को फिर से नहीं चाहता
अपने सामने देखना
क्योंकि मैंने व उसने
सीख लिया है
नए जीवन में सांस लेना
नए उमंगो और नए बहारो के साथ....
है न.................!!
~मुकेश~