आज टैरेस पर टहलते हुए
रजनीगंधा की भीनी ख़ुशबू
और रेन लिली की गुलाबी चमक
छा गई कहीं भीतर तलक...
तुम मुस्काई,
जैसे लटों पर
छतरी से फिसली कोई बूँद
झिलमिलाई हो चुपचाप...
अपने प्रिज्मीय अपवर्तन के साथ
तुम्हारे शब्द भी
उस पल हँस पड़े थे —
काश!
तुम होती रजनीगंधा
और तुम्हारी फ्रॉक पर
टँकी होती गुलाबी लिली...
और मैं, हाँ मैं
माली सा जुड़ा रहता
तुम्हारी देखभाल में
चुपचाप, मगर मगन...
काश! तुम होती
मेरे गमलों की कोई खिलती कविता...!
रचते रहता दिन रात 

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