जिंदगी की राहें

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Friday, May 29, 2020

डर



डर
कोरोना नहीं होता
पर
कोरोना
होती है वजह
मरने की
मरने से
डर तो लगता
ही है न
हां,
भूख भी
मरने की
वजह हो सकती है
भूखे लोग
डरे रहते हैं कि
मर न जाएं
डरे लोग
दुबके हैं
पर भूख और डर की समग्रता
करवा रही है
सफर
कोरोना पीड़ित
मर ही जायेंगे क्या?
शायद नहीं
पर
भूख पक्का
मारती है
काश
इतने अन्योन्याश्रय सम्बन्ध
नहीं हुआ करते
काश
कोरोना भी नहीं होता
काश
भूख भी सफर नहीं करता
कितनी बेबसी
कितनी लाचारी
मौत अपना प्रभाव
छोड़ेगी ही
चाहे वो भूख की हो
या हो किसी अदृश्य वायरस की
जहां 'काश' की
गुंजाइश तक नहीं
है तो सिर्फ अंतहीन प्रतीक्षा
और करुणा से भीगी प्रार्थना
जिंदगी
है अभी मुसीबत भरी आपदा
है 'काश' का पुलिंदा
....है न!!!
~मुकेश~

Monday, May 18, 2020

समर्पित कविता



क्या लिखी जा सकती है
कविता
जो हो तुम्हे समर्पित
जिसके शब्द शब्द में
तुमसे जुड़ा हर एहसास हो समाहित

जैसे, बहती नदी सा
कलकल करता बहाव
और दूर तलक फैली हरियाली
अंकुरण व प्रस्फुटन की वजह से
दे रही थी
सुकून भरी संतुष्टि

पर वहीं
समुद्र व उसका जल विस्तार
बताता है न
सुकून से परे
जिंदगी का फैलाव,
ज्वारभाटा की सहनशक्ति सहित
जैसे मस्तिष्क के भीतर
असंख्य नसों में
तरंगित हो बह रहा हो रुधिर ।
समुद्र की लहरों के एहसास सी तुम
और, तट से अपलक निहारता मैं ।

बसन्त के पहले की
सिहराती ठंडी पछुआ बयार
और फिर आ जाना पतझड़ का
मन तो कह ही उठता है न
उर्वर शक्ति हो चुकी है
बेहद कम
पर, रेगिस्तान में
जलते तलवों के साथ
बढ़ते चले जातें हैं दूर तलक
होता है दर्द तो
महसूसता हूँ मृग मरीचिका सी तुम को
और फिर आ ही जाता है
खिले फूलों की क्यारियों से सजा बसंत

जिंदगी देती है दर्द
ये समझना कुछ नया तो नहीं
पर ये भी तो मानो
कि, तुम्हारी चमक
जैसे पूनम के चाँद को देख कर
लगी हो, स्नेहसिक्त ठंडी छाया
और फिर
बंद आँखों के साथ
बालों में फेर रही हो तुम उंगुलियां !

सुनो ! नींद आ रही है !
कभी कभी जल्दी सोना भी चाहिए

~मुकेश~