जिंदगी की राहें

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Monday, December 31, 2012

शुभकामनायें.....



सुना था इक्कीस दिसम्बर को धरती होगी खत्म
पर पाँच दिन पहले ही दिखाया दरिंदों ने रूप क्रूरतम
छलक गई आँखें, लगा इंतेहा है ये सितम
फिर सोचा, चलो आया नया साल
जो बिता, भूलो, रहें खुशहाल
पर आ रही थी, अंतरात्मा की आवाज
उस ज़िंदादिल युवती की कसम
उसके दर्द और आहों की कसम
हर ऐसे जिल्लत से गुजरने वाली
नारी के आबरू की कसम
जीवांदायिनी माँ की कसम, बहन की कसम
दिल मे बसने वाली प्रेयसी की कसम
उसे रखना तब तक याद
जब तक उसके आँसू का मिले न हिसाब
जब तक हर नारी न हो जाए सक्षम
जब तक की हम स्त्री-पुरुष मे कोई न हो कम
हम में न रहे अहम,
मिल कर ऐसी सुंदर बगिया बनाएँगे हम !!!!
नए वर्ष मे नए सोच के साथ शुभकामनायें.....


Saturday, December 29, 2012

वो जीना चाहती थी


वो जीना चाहती थी 

वो खुशहाल जिंदगी चाहती थी 
अम्मा-बाबा के सपने को पूरा करना चाहती थी ...........

अम्मा-बाबा ने साथ भी दिया 
एक छोटे से शहर से डर-डर कर ही सही 
पर भेजा था उसे इस मानव जंगल में 
वो भी उनके अरमानो को पंख लगाने हेतु 
फिजियोथेरपी की पढाई में अव्वल 
आ करा आगे बढ़ना चाहती थी 
वो जीना चाहती थी ......

वो जीते हुए पढना और बढ़ना चाहती थी 
वो नभ को छूना चाहती थी 
वो सिनेमा हाल से ही तो आयी थी उस समय 
जब उसने परदे से मन में उतारा था सतरंगी सपना ....
वो खुश थी उस रात, 
जब घर पहुँचने की जल्दी में चढ़ गए थी 
सफ़ेद सुर्ख पब्लिक बस पर 
वो तो बस जीना चाहती थी ....

उस सुर्ख सफ़ेद बस के अन्दर 
एक जीने की चाह रखने वाली तरूणी के साथ 
छह दरिंदो ने दिखाई हैवानियत 
उसने झेला दरिंदगी का क्रूरतम तांडव 
इंसानियत हुई शर्मसार 
फिर भी, हर दर्द को सहते हुए पहुंची वो अस्पताल 
तो उसने माँ को सिर्फ  इतना कहा 
माँ मैं जीना चाहती हूँ .........

तेरह दिन हो चुके थे 
उस क्रूरतम दर्द के स्याह रात के बीते हुए 
पर उसकी बोलती आँखे ....
जिसमे कभी माँ-बाबा-भाई का सपना बसता था 
दर्द से कराहते हुए भी 
उसने जीने का जज्बा नहीं छोड़ा 
तीन-तीन ओपरेशन सहा,फिर भी 
अस्पताल के आईसीयू से हर समय आवाज आती 
वो जीना चाहती थी ...

अंततः ऊपर वाले ने ही दगा दे दिया 
उस नवयुवती ने आखिर 
अंतिम सांस लेकर विदा कर ही दिया ....
आखिर जिंदगी को हारना पड़ा 
पर हमें याद रखना होगा 
"वो जीना चाहती थी"
वो बेशक चली गयी पर,
अब भारत के हर आम नारी में उसको जीना होगा 
हर भारतीय नारी को याद रखना होगा 
वो जीना चाहती थी 
वो तुम में जिन्दा है ...
__________________
आज सोलह दिसंबर है........!!


Sunday, December 23, 2012

-दामिनी-




हर दर्द को कविता में नहीं पिरोया जा सकता, हाँ उस दर्द को झेलने के बाबजूद जिंदगी जीने की तमन्ना रचना के काबिल होती है...
एक दर्दनाक हादसे की शिकार दामिनी (काल्पनिक नाम, यही कह रहे हैं टीवी वाले) के जिन्दादिली को  समर्पित उसके ही कथन .....!!


" माँ -पापा को कुछ मत बताना "

- दर्द से डूबी प्रार्थना 

जब उसे ले जा रहे थे अस्पताल 

"वो बेहोश थी, पर आँखों में आंसू थे"

-सफ़दर
जंग  अस्पताल के डाक्टर 

के हवाले से आयी खबर 

" मैं जीना चाहती हूँ "

- ये भी उसने ही कहा 

अस्पताल के बाहर किसी ने बताया 

.
क्या ये तीन कथन से भी 

दर्दनाक !

पर जिंदगी जीने के तमन्ना 

से भरी हुई !

हो सकती है कोई रचना !!!


Friday, December 14, 2012

डीटीसी के बस की सवारी



ये डीटीसी के बस की सवारी
इससे तो थी अपनी यारी

हर सुबह कुछ किलोमीटर का सफर
कट जाता था, नहीं थी फिकर
जैसे सुबह 9 बजे का ऑफिस
11 बजे तक भी पहुँचने पर कहलाता गुड, नाइस!

तो बेशक घर से हर सुबह निकलते लेट
पर बस स्टैंड पर भी थोड़ा करते थे वेट
अरे, कुछ बालाओं को करना पड़ता था सी-ऑफ
ताकि कोई भगा न ले, न हो जाए इनका थेफ्ट
कुछ ऑटो से जाती, कुछ भरी हुई बस मे हो जाती सेट
हम आहें भरते, करते रह जाते दिस-देट
मेरी बोलती आंखे दूर से करती बाय-बाय
मन मे हुक सी होती, आखिर कब 'वी मेट'

लो जी आ ही गई हमारी भी ब्लू लाइन बस
जो एक और झुकी थी, क्योंकि थी ठसाठस
तो भी बहुत सारे यात्रीगण चढ़ रहे थे
पर, कुछ ही यात्री आगे बढ़ रहे थे
क्योंकि अधिकतर महिलाओं की सीट पर लद रहे थे
कंडक्टर से अपना पुराना दोस्ताना था
अतः सीट का जुगाड़ हर दिन उसे ही करवाना होता था

एक सज्जन ने अपने साथ बैठने को बुलाया उसको
तभी दूसरी खूबसूरत ने कहा जरा सा तो खिसको
एक लो कट नेक वाली महिला थी खड़ी
अंकलजी से रहा नहीं गया, उन्हे सीट देनी ही पड़ी
पान / तंबाकू खा कर कोई बाहर पीक फेंक रहा था
तो वहीँ स्टायलों डुड ने सिगरेट का छल्ला उड़ाया था

कोने मे बैठे उम्रदराज साहब ने शुरू कर दी बहस
यूं कि धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी भरी हुई बस
क्या चल पाएगी या गिर जाएगी सरकार
दूसरे ने पान चबाते हुए कहा
अब किसे सुननी है? हमारी क्या दरकार !

हमने भी आज फिर से याराना निभाया
बच्चू फिर आज गच्चा दे कर टिकट नहीं कटवाया
इस तरह इस बनते बिगड़ते बस के लोकतन्त्र में
हमने समय काटा, और पहुँच गए ऑफिस खेल खेल में

ये डीटीसी के बस की सवारी, इससे तो थी अपनी यारी।

~मुकेश~


Tuesday, December 4, 2012

~ धुएँ का छल्ला ~




भैया !!
देना एक छोटी गोल्ड फ्लेक
एक मेंथोल टॉफी भी
सररर…….
माचिस के तिल्ली की आवाज
अंदर की और साँस
और फिर धुएँ का छल्ला 
मिलता-जुलता म्यूजिक भी
"सिगरेट के धुएँ का छल्ला बना कर"
ऐसा ही होती है न
शुरुआत स्मोकिंग की
सब कुछ परफेक्ट
.

पर कितना अजीब है न
ये धुआँ भी
अगर आँखों में लगे
तो लगता है जलने
पर श्वांस नाली के द्वारा
अंदर जाकर यही धुआँ
जब पहुँचता है फेफड़े तक
बेशक इसको देता है जला
पर एक अतृप्त नशा
कुछ क्षणों का अहसास
दे जाता है 
अंदर तक जलने की क्षमता
 .
हाँ ये बात है अलग
यही अंदर तक
जलाने की लगातार कोशिश
जब लाती है रंग...
अरे रंग नहीं बदरंग
खराश, खाँसी, हिचकी 
छाती में दर्द
कैंसर या फिर अंततः मौत
 .
लेकिन फिर भी
कुछ नहीं बदलता
बस एक उस इन्सान 
और उसके विरासत को 
मिलता है दर्द
बेपनाह दर्द
जो नहीं बदल पाया आदत
स्मोकिंग की आदत
 .
बदलोगे?
अब तो बदल पाओगे?
बदल लेना......

Sunday, November 18, 2012

लेंड-क्रूजर का पहिया




एक महानगर से सटे
एक छोटे से गाँव में
थी चहल पहल
चमक रहा था
कैमरे की लैंस 
न्यूजरूम के स्टीकर वाले
चौकुठे काले माइक्रोफोन पर
बोल रही थी
रोती कलपती 
मनसुख की मैया -
हमरा एक ही बेटा रहा
ऊ भी जवान
हाँ पीता था दारू
बीडी की लत तो रहबे करी 
पर था, हमरा जिगर का टुकड़ा 
हमरे बुढ़ापे का लाठी रहा
अब कैसे जियेंगे 
ई  फ़ट्ट्ल  साड़ी 
औ सुख्खल रोटी
तो मिल जात रही 
अब तक, ओकरा वजह से....
.
दूर पड़ी थी 
सफ़ेद कपडे में ढकी लाश 
पर मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज
मैं नहीं थी, मनसुख की मैया
या उसका  इंटरव्यू ...
टी.आर.पी. कहाँ बनती है ..
भूखी बेसहारा माँ से 
इसलिए टी.वी. स्क्रीन पर
चिल्ला रहे थे..
न्यूज रीडर...
लेंडक्रूजर के नीचे
सी.पी. के व्यस्त चौराहे पर
गया मेहनतकश नौजवान
और बार बार सिर्फ ...
दिख रहा था स्क्रीन पर
चमकता लेंड-क्रूजर
व उसका
निर्दयी पहिया...


Thursday, November 1, 2012

चाय का एक कप!


























पहली बार
मैं गया था उसके घर
रौबदार आवाज..
चाय लाना..
वो सामने चाय के साथ
मिले दो हाथ, हुआ स्पर्श, प्लेट के नीचे
क्षण भर को तरंगित
कारण चाय का एक कप!
.
कॉलेज केन्टीन
ऑर्डर पे गयी एक चाय,
उफ़! तुम भी गए
भैया! एक खाली कप देना.
बाँट गयी दो दोस्त में ..
स्नेह से भरी
चाय का एक कप!
.
रोड साइड दुकान
बेरोजगारी के दिन..
चाय पिलाएगा..?
एक दोस्त ने कहा...
भैया देना चाय
दो बटा तीन कटिंग
हम तीनो के सामने थी..
दोस्ती से लबालब
चाय का एक कप!
.
सुनो!
उठ रहे हो.
जग जाओ ...
अलसाई सुबह में
कानो में घोलती श्रीमती जी की आवाज
इन्तजार कर रही थी
चाय का एक कप!
.
ट्रिन ट्रिन !!
पुराने मित्र का फ़ोन
कहाँ है? कैसा है?
बहुत दिन हो गए..
पुरानी यादें ताजी करते हैं
मिल कभी!
पीते हैं साथ में
चाय का एक कप!
.
आफिस टेबल
सरकारी कार्यों पर मीटिंग
टेंडर, एप्रूभल.
बहुत सी बातें..
और
चाय का एक कप!
.
ये अदना चाय का कप
लोगों को जोड़ता है
मिलाता है
बांटता है प्यार
जगाता है अहसास
बढ़ता है व्यापर
हर बात का जबाब
चाय का एक कप!






Thursday, October 18, 2012

एक नदी की मर्सिया



पिछले दिनों हमारी साझा कविता संग्रह "कस्तूरी" प्रकाशित हुई ! उसमे ये रचना प्रकाशित हो चुकी है, पहले ब्लॉग पर साझा नहीं किया था , अब सोचा आप सबसे से पूछूं कैसी हैं ...........
बताएँगे???



हमारी गंगा-यमुनी संस्कृति 
का प्रतीक
व दिल्ली की जीवन रेखा
"यमुना"
अब जब भी गुजरो 
इसके ऊपर के पुल से 
तो दूर से दिख जाती है
झक सफ़ेद
दुधिया नदी............!
.
पर कभी पहुँचो पास
तब होगा अहसास 
नहीं है यह सफ़ेद दुधिया रंग
नहीं है ये स्वच्छ जल
ये तो है गंदगियों से बना
दुधिया फेन
जो तैर रहा है
छिछले गंदे काले पानी पर..
यमुनोत्री की पावन जल धारा
दिल्ली आकर बन जाती है 
गन्दा नाला !!
.
हम सब कर रहे हैं कोशिश 
बना रहे हैं परियोजनाएं
ठान लिया है....
कैसे भी कर के मानेंगे
कर देंगे स्वच्छ
पर कैसे?
कागज पर हो रही है कोशिश
लग रहे हैं पैसे
क्या होगा हकीकत में वैसे ?
.
यहाँ तो   
जहाँ जिन्दा है यमुना
वहां हो रहा है काम
उसको मारने का
और जहाँ मर चुकी है
वहां कर रहे हैं कोशिश
लाश नोचने की ...
लगे हैं हम
एक नया रेगिस्तान बनाने में 
एक प्यारी सी नदी 
की  मरसिया  पढने में.....!!!!!