कुछ बहुत अपने
जिन्होंने जीना सिखाया,
जिंदगी को दिशा दी
जैसे खेत में फड़फड़ाता झंडा बताता है
अभी हवा दक्खिन की ओर बह रही !
जिनको हर वक़्त पाते थे
नितांत अपनी परिधि में
इन दिनों,
वो भी अलग वक्र कटाव पर
बिंदु भर मिलते हैं
और, फिर..
एक समान ढलाव में दूरी बनाते हुए दूर हो जाते हैं
ये आवर्ती सामीप्य
अाभासी दुनिया को सच करती है क्या?
पेंडुलम की भाँति कभी दूर कभी पास
पर, ऐसा क्यों लगता है कि फिर वो दूरी कम होगी!
हर बार तो ऐसा ही होता है न
मैंने भी सोच लिया ...
पक्की दुश्मनी करनी है मुझे
बिना एक दूसरे के अक्षांश को काटे
अलग अलग गोलार्धों में घूमना संभव नहीं है क्या ?
क्यों? मैं ही क्यूँ..
हारूं?
हर बार की तरह क्यूँ न इस बार भी मैं ही इतराऊं
सोच लो! नो ऑप्शंस ! चुपचाप मेरी परिधि में आ जाओ,
हाँ! अभी भी वापस नहीं लिया वो अधिकार
गाल मेरा थप्पड़ तुम्हारा.. बाकी तुम जानो!!
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कविता कभी कभी संवाद होती है
निर्भर करता है शब्दों के सम्प्रेषण का !
निर्भर करता है शब्दों के सम्प्रेषण का !
एकतरफा संवाद कह सकते हैं
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रेणुका ओक के हाथो हमिंग बर्ड |
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