कविता
जो हो तुम्हे समर्पित
जिसके शब्द शब्द में
तुमसे जुड़ा हर एहसास हो समाहित
जैसे, बहती नदी सा
कलकल करता बहाव
और दूर तलक फैली हरियाली
अंकुरण व प्रस्फुटन की वजह से
दे रही थी
सुकून भरी संतुष्टि
पर वहीं
समुद्र व उसका जल विस्तार
बताता है न
सुकून से परे
जिंदगी का फैलाव,
ज्वारभाटा की सहनशक्ति सहित
जैसे मस्तिष्क के भीतर
असंख्य नसों में
तरंगित हो बह रहा हो रुधिर ।
समुद्र की लहरों के एहसास सी तुम
और, तट से अपलक निहारता मैं ।
बसन्त के पहले की
सिहराती ठंडी पछुआ बयार
और फिर आ जाना पतझड़ का
मन तो कह ही उठता है न
उर्वर शक्ति हो चुकी है
बेहद कम
पर, रेगिस्तान में
जलते तलवों के साथ
बढ़ते चले जातें हैं दूर तलक
होता है दर्द तो
महसूसता हूँ मृग मरीचिका सी तुम को
और फिर आ ही जाता है
खिले फूलों की क्यारियों से सजा बसंत
जिंदगी देती है दर्द
ये समझना कुछ नया तो नहीं
पर ये भी तो मानो
कि, तुम्हारी चमक
जैसे पूनम के चाँद को देख कर
लगी हो, स्नेहसिक्त ठंडी छाया
और फिर
बंद आँखों के साथ
बालों में फेर रही हो तुम उंगुलियां !
सुनो ! नींद आ रही है !
कभी कभी जल्दी सोना भी चाहिए
6 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 19 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-05-2020) को "फिर होगा मौसम ख़ुशगवार इंतज़ार करना " (चर्चा अंक-3707) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता।
बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर.
सादर
बहुत खूब
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