जिंदगी की राहें

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Tuesday, July 28, 2015

"बुद्धं शरणम् गच्छामि................."

ऐ धरती
मैं तुम पर खड़ा रहने के बदले
चाहता हूँ तुम्हारे गोद में सोना,
चाहता हूँ महसूस करना
चाहता हूँ मेरी देह में 
लिपटी हो मिट्टी
जहाँ-तहां घास और खर-पतवार भी
और फिर, वही पड़े निहारूं
नीली चमकीली कोंपल से भरी,
चमकती दरख्ते, और उस पर बैठी काली मैना
मेरे चेहरे पर, हो लगी
नम कीचड़ से सनी
जीवनदायिनी मिटटी और उसके सौंधेपन में
खोया हुआ 'मैं'
निहारूं नीले गगन को
और दिख जाए दूर उड़ता हुआ
झक्क सफ़ेद, घर लौटते
हंसो का समूह, एक कतार में
ऐ धरती
तुम्हे छूना
तुम्हारा स्पर्श
ठीक वैसे ही न
जैसे मिलती हो ममता माँ की
या प्रेमिका का दैहिक, उष्ण स्पर्श
दोनों ही प्रेम, संवेदनाओं का अतिरेक
ख़ुशी की पराकाष्ठा
ओ मेरी वसुधा
तुममें लेट जाना
ठीक वैसे ही न
जैसी बौधि वृक्ष के नीचे
बुद्ध ने पाया हो परम ज्ञान
या फिर जैसे मेरे मरने पर मिलेगी
मुझे शांति !
या बहुतों को शांति !
अभी तो बस मैंने ये
महसूसा, हूँ तुम पर लेटा
और दूर से बौद्ध मठ से आ रही आवाज
"बुद्धं शरणम् गच्छामि"
ज्ञानं शरणम् गच्छामि!
~मुकेश~

2 comments:

Samta sahay said...

एक सुखद अनुभूति होती है आपकी रचना को पढ़ने के बाद !

सदा said...

एहसासों के शिखर पर कई बार ऐसा भी महसूस होता है
और सुनता है मन भी कई ऐसी ही आवाजों को जो उसे देती हैं सुकून और जिंदगी को नये आयाम ..... बहुत ही अच्छा लिखा है आपने