लॉकडाउन की लीला ऐसी
कि इक्कीस उन्नीस करते हुए
चाहते न चाहते
कुछ घण्टों, मिनटों के दरमियान
पहुंच ही जाता है हाथ
पकड़ लेता हूँ रिमोट
टिपटिपाने लगती है अंगुलियां
कि शायद
कुछ अनचाहे न्यूज मे हो कुछ संवेदना
ऐसी भरी भारी उम्मीद को सुनने के लिए
हर बार उम्मीद का बस्ता उठाये
मन कहता है अबकी आएंगे कुछ अलग से व्यूज
जैसे आखिर हार गया कोरोना
या संवेदनाएं जीतने लगी
या फिर हम भारतीय
सोशल डिस्टेंसिंग की दूरी बनाकर भी
बरकरार रख पाए निकटता
धर्म से इतर रही कोशिश जान को बचाने की
आदि इत्यादि....
पर, इन दिनों
हर बार दरकती हैं उम्मीदें
चीखती हैं टीवी स्क्रीन
हर पल मृतकों की बढ़ती संख्या
विस्थापन का दंश झेलते भागते मजदूर
कोरोना के ऊपर भूख की छटपटाहट
पिज्जा के स्वाद की छटपटाहट
पूरे तब्लीगी समाज या कनिका जैसी की बेवकूफी
या संक्रमित लोगों की संख्या के
बढ़ते ग्राफ के रीयल न्यूज के साथ
दिखता है, चिल्लाता एंकर
जो संवेदनाओं के संवाहक के बदले
होता है चिन्दी उड़ाता हुआ शख़्सियत
हर चैनल पर अलग अलग
बेशक भेषभूषा हो अलग पर
पर हरकोई मर चुके दिल के साथ करते हैं
मौत के जलालत पर बात
किसका चैनल कितना तेज
कौन इस कठिन समय में भी
घर पर न रहकर स्टूडियो से
पहुंचते हैं ब्रेक करते हुए कारस्तानियों के साथ
मरती संवेदनाओं के संवाहक के रूप में
अब हर पल मार रहे ये न्यूज़ एंकर
सूचना के दौर मे
उम्मीदों से इतर डर और घृणा बांटते हुए
बता रहे हैं कि कौन है कितना तेज !
2 comments:
सामयिक और सुन्दर प्रस्तुति।
सही कहा
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