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हुआ कुछ ऐसा कि
शहरी जंगल में बसा मेरा दो कमरे का घर
घर की छोटी सी छत
वहीँ कोने में कुछ गमले
थोड़ी सी हरियाली
थोड़ी रंगीन पंखुरियां
खिलते फूलों व अधखिली कलियों की खुश्बू
एक दिन, अनायास गलती से, गुलाब के गमले में
छितर गईं थीं कुछ पंखुरियां,
फिजां भी महकती
वाह! क्या अहसास और कैसी थी ताजगी !!
साथ ही, कुछ और भी हुआ ऐसा कि
एक प्यारी सतरंगी तितली
जिसका लार्वा बेशक पनपा था
गाँवों के गलियारे में
पर, भटक कर, छमक कर,
धुएं के दावानल में बहकर
पहुंचा
शहर की पथरीली नदियों सी सड़क पर
बैठ न पाया कहीं, इस तपती धरती पर
न, ही कर पाया फूलों के निषेचन में
कोई भी सहयोग !!
निराश फूलों के पराग सूखते गए, उम्मीदों के साथ !!
वही चमकीली इंद्रधनुषी तितली
आज नामालूम
कैसे फड़फड़ा रही थी
गमले की गुलाबी पंखुड़ियों पर
बैठी थी एकाकीपन के साथ
पर थी रंगत ऐसी
जैसे अन्दर से खिलखिलाहट उमड़ रही हो !
बेचारी तितली ने पता नहीं
कैसे क्यों कब, कितने किलोमीटर का काटा सफ़र
अब जा कर उस पंखुड़ी पर
सुस्ताते हुए जी रही थी
पंखों पर लिपट रहे थे
उन्मुक्त पराग कण
जिससे, कुछ उसके पंखो का बदला हुआ था वर्ण
मेरे मोबाइल के कैमरे की क्लिक
कर रही थी अब बयान
- इस शहरी जंगले में
खिले फूल की सार्थकता !!
लगा कुछ ऐसा, जैसे कहा हो तितली ने
- थैंक यू !!
ऐसे ही हर, छत पर खिलाओ न गुलाब ! प्लीज !!
जिंदगी सतरंगी उम्मीदों भरी हो
बस इत्ती सी चाहत :-)
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