जिंदगी की राहें

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Wednesday, October 18, 2017

कुल्हड़



उफ़ ये सर्दी भी क्या न करवाए !
सर्द आहों से निकलती ठंडी वाष्प व
चाय से भरे कुल्हड़ से निकलती गरम भाप
दोनों गडमगड हो कर
कुछ अजब गजब कलाकृति का कर रहे निर्माण
बनते रहे कुछ भी
हम तो बस, तुमको ही पायेंगे
धुएं में भी .........
चेहरा तुम्हारा बनायेंगे
पानी, पत्थर पर कई बार बना चुके
अबकी धुएं में बलखाती बालों वालीं मल्लिका
कुछ अजूबा ! आश्चर्यजनक है ना
ये प्रतिबिम्ब तुम्हारा !
याद है न
तुम्हारे चश्मे पर
ठन्डे वाष्प की करके फुहार
कर अँगुलियों से कारीगरी
बना देते थे प्रेम प्रतीक
वही उल्टा तीन और मिला हुआ छोर
फिर कहते
एक बार इन प्रेम भरी नज़रों से देख लो न !
तुम्हारी छेड़खानियाँ भी तो कम न थी
मूँद कर खरगोश सी चमकती आँखों को
कहती तुम तो दिखते ही नहीं
मोतियाबिंद हो गया मुझे ...
और फिर पल भर में
चश्मा हटा
डाल आँखों में आँख धीरे से कह उठती ...
ये लो झाँक कर देख लो
नजर मेरी .........प्रेम भरी !!
अब तो भाप से
संघनित हो
बन कर ओस के कण
छितर कर रह गया प्रेम ......
तुम्हारा मेरा !!
यादें प्रेम सिक्त हों तो
सर्दियाँ भी ख़ुशी भरती हैं..!
~मुकेश~


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