नेशनल हाइवे न. 31
सपने में, विकास के तेज वाहन पर सवार
कुलबुला रही अजीब सी फीलिंग..
समतल बहुत चौड़े व अनंत तक लंबे
काले चारकोल के कालीन पर
हूँ बीच खड़ा ! नितांत अकेला !!
शोर कोलाहल प्रदूषण..
तेज सरपट दौड़ती गाड़ियों की आवाजाही
लगातार !!!
भयावह हो चुका यातायात !
था जड़वत, शिथिल ! स्तब्ध !
थी कहीं अंदर ये उम्मीद कि
पहुंचुंगा दूर तलक !!!
पर, उफ्फ्फ!
कहाँ समझ पाते मशीन व मशीनी लोग
एक चौड़े डनलप या एमआरऍफ़ के पहिये ने
पीस ही दिया सर !!
हाँ ये मन मस्तिष्क ही जो था खोखला ! विवेकहीन !
दूर तक घिसटता .... दिलाता याद !
दर्द-कराह के कुछ क्षणों के साथ
की जिंदगी को कभी कभी
कंचों की गोलियों सी लुढक लेने दो !
जैसे कभी एक गोली दूसरे पर पड़े
टन्न !!
चोट भले लगे दोनों को
पर एक को हार और
दूसरा विजेता !! विनर !!
भन्नाया मानस मर चुका घिसट कर
फिर भी सोच रहा
कौन सा कंचा था
विजेता..
जिसके लिए आई थी आवाज - हुर्रे !!
या, सुषुप्त लुढ़का ! फटे दर्दविदारक सर के साथ !
अगले नव-जन्म की प्रतीक्षा में !!
जा रहा हूँ .....
पर अंतिम आवाज 'हे राम' की नही
"जीतूँगा" की !!
इन्तजार करना...........
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-08-2016) को "बिखरे मोती" (चर्चा अंक-2425) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक कटु यथार्थ !
बधाई !!
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