जब भी जाता हूँ गाँव
तो गुजरता हूँ, विशालकाय लोहे के पुल से
सरकारी नाम है राजेन्द्र प्रसाद सेतु
पर हम तो जानते हैं सिमरिया पुल के नाम से
पार करते, खूब ठसाठस भरे मेटाडोर से
लदे होते हैं, आलू गोभी के बोरे की तरह
हर बार किराये के अलावा, खोना होता है
कुछ न कुछ, इस दुखदायी यात्रा में
पर, पता नहीं क्यों,
माँ गंगा की कल कल शोर मचाती धारा
और उसके ऊपर खड़ा निस्तेज, शांत, चुप
लंबा चौड़ा, भारी भरकम लोहे का पुल
पूरी तरह से हिन्दू संस्कारों से स्मित
जब भी गुजरते ऊपर से यात्री
तो, फेंकते हैं श्रद्धा से सिक्का
जो, टन्न की आवाज के साथ,
लोहे के पुल से टकराकर
पवित्र घंटी की ठसक मारता है पुल,
और फिर, गिरता है जल में छपाक !!
हर बार जब भी गुजरो इस पुल से
बहुत सी बातें आती है याद
जैसे, बिहार गौरव, प्रथम राष्ट्रपति
डॉ. राजेंद्र प्रसाद की, क्योंकि सेतु है
समर्पित उनके प्रति !
पर हम तो महसूसते हैं सिमरिया पुल
क्योंकि यहीं सिमरिया में जन्मे
हम सबके राष्ट्र कवि “दिनकर”
एकदम से अनुभव होता है
पुल के बाएँ से गुजर रहे हों
साइकल चलाते हुए दिनकर जी !
साथ ही, गंगा मैया की तेज जलधारा
पवित्र कलकल करती हुई आवाज के साथ
बेशक हो अधिकतम प्रदूषण
पर मन में बसता है ये निश्छल जल और पुल !!
और हाँ !! तभी सिमरिया तट पर
दिख रहा धू-धू कर जलता शव
और दूर दिल्ली में बसने वाला मैं
कहीं अंदर की कसक के साथ सोच रहा
काश! मेरा अंतिम सफर भी, ले यहीं पर विराम
जब जल रहा हो, मेरे जिस्म की अंतिम धधक
इसी पुल के नीचे कहीं
तो खड्खड़ता लोहे का सिमरिया पुल
हो तब भी ........ अविचल !!
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माँ गंगा को नमन !!
Patna Beats पर उपरोक्त कविता प्रकाशित
13 comments:
main is pul se gujara hua hoon aur wakayi kavi man ko ye pul rok leta hai
बहुत सुन्दर भाव हैं......
अपनी जड़ों से जुड़े रहना कितना सुखद है न...
सस्नेह
अनु
बहुत सुंदर ।
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति।
कहीं भी हम रह ले जडे तो अपनी और खिचती ही है.. बहुत सुन्दर भाव हैं......
बहुत अच्छा लिखा है ..... पर अंत तक पढ़ते - पढ़ते मन व्यथित हो गया .... ऐसी कल्पना भी न किया करो ..... स्नेहाशीष !
behud madhur smiriti...mohak bhav...
बहुत खूब !!
पार करते, खूब ठसाठस भरे मेटाडोर से
लदे होते हैं, आलू गोभी के बोरे की तरह
हर बार किराये के अलावा, खोना होता है
कुछ न कुछ, इस दुखदायी यात्रा में
पर, पता नहीं क्यों,
इस पुल के ऊपर की यात्रा देती है संतुष्टि !!...यही आम-भाषा आपके काव्य को सुंदरता देती है ! बधाई !
लोहे का सिमरिया पुल ...अविचल रहेगा
एक वक्त होगा जब ये रहेगा पर हम ना होंगे...
बहुत कुछ कहा आपने.
गाँव, जुड़ाव , यादों के कई रंग समेटे हुए बहुत ही भावुक कविता ...बहुत सुन्दर
बहुत अच्छा लिखा है .....
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