कल
गहरी नींद में था सोया
तो मेरे ‘शहर’ ने मुझे जगाया
कुनमुनाते हुए मैंने ज्यों ही
अधमुँदी आंखो से देखा
मेरा शहर ज़ोर से चिल्लाया
मरदूद! कितने गिरे इंसान हो
इंसान हो भी या पाषाण हो
तो मेरे ‘शहर’ ने मुझे जगाया
कुनमुनाते हुए मैंने ज्यों ही
अधमुँदी आंखो से देखा
मेरा शहर ज़ोर से चिल्लाया
मरदूद! कितने गिरे इंसान हो
इंसान हो भी या पाषाण हो
........इसी
शहर में रहते हो ?
फिर भी, इसी को बदनाम करते हो ?
उफ! मेरे आदरणीय ‘शहर’
अब बोल भी दो, क्यों चिल्लाते हो
क्यों इस फटेहाल को सताते हो
फिर भी, इसी को बदनाम करते हो ?
उफ! मेरे आदरणीय ‘शहर’
अब बोल भी दो, क्यों चिल्लाते हो
क्यों इस फटेहाल को सताते हो
बद्तमीज़! तुझे याद भी है ?
जब कॉलोनी के गोल चक्कर से
तू अपने खटारे बजाज से गुजर रहा था
तो कोने वाले दरवाजे से
किसी अपने के एक्सीडेंट में गुजर जाने का दर्द
तेज विलाप में नजर आ रहा था
पर तू ! तू तो सिर्फ रुका, ठिठका
और फिर चुपचाप खिसका
कुछ दिन पहले भी मैंने तुझे देखा था
भूख से बिलखता, एक नौ साल का बच्चा
माँ-बाप से बिछड़, तेरे पास से गुजरा था
पर तूने देखकर भी अनदेखा किया था
और, और! उस दिन तो तूने अति कर दी थी
जब सड़क पर एक मनचले ने, तेरे सामने ही
मासूम सी
लड़की का दुपट्टा खींचा था
तब भी कुछ कहने से तू झिझका था
एक बार तुम्हारे सामने चलते बस में जेब कतरे ने
एक उम्रदराज की पर्स उडाई थी
पर फिर भी तुझे क्या,
अनदेखा कर सीट पर आँख झपकाई थी
ए पाषाण! तेरे जैसे के कारण ही
मैं बिलखता हूँ, रोता-चिल्लाता हूँ
पर तुम्हारे जैसे की जिंदगी ढोता हूँ
काश! तुझे देश-शहर निकाला जैसा
कोई गंभीर सजा दे दिया जाता !!
देख आज भी सिर्फ तेरी नींद खड़कायी है
तुम्हारी अंतरात्मा ही तो जगाई है
अब बस! मेरा इतना सा कहना मानना
नींद से जागते ही, अपने अंदर के इंसान को जगाना
बस इतना सा कहना मान ही लेना
मानेगा ?
____________________________________
मेरा शहर हर पल परेशान करता है, क्या करूँ खुद को बदलूँ या शहर को
तब भी कुछ कहने से तू झिझका था
एक बार तुम्हारे सामने चलते बस में जेब कतरे ने
एक उम्रदराज की पर्स उडाई थी
पर फिर भी तुझे क्या,
अनदेखा कर सीट पर आँख झपकाई थी
ए पाषाण! तेरे जैसे के कारण ही
मैं बिलखता हूँ, रोता-चिल्लाता हूँ
पर तुम्हारे जैसे की जिंदगी ढोता हूँ
काश! तुझे देश-शहर निकाला जैसा
कोई गंभीर सजा दे दिया जाता !!
देख आज भी सिर्फ तेरी नींद खड़कायी है
तुम्हारी अंतरात्मा ही तो जगाई है
अब बस! मेरा इतना सा कहना मानना
नींद से जागते ही, अपने अंदर के इंसान को जगाना
बस इतना सा कहना मान ही लेना
मानेगा ?
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मेरा शहर हर पल परेशान करता है, क्या करूँ खुद को बदलूँ या शहर को
इजराइली कलाकार मोशेल कैसेल की पेंटिंग हलेलुजाह |
10 comments:
बहुत ही सुंदर लिखा है । शहर की व्यथा को बखूबी बयां किया आपने। सच्चाई कितनी तकलीफ देती है
बहुत बढ़िया.....
बेहद सशक्त और दिल को छूती पंक्तियाँ हैं..
अनु
sarthak,sashakt or khubsurat rachna.....apne bebsi ke hantho kuch nahi....
आपकी प्रविष्टि् कल रविवार (16-02-2014) को "वही वो हैं वही हम हैं...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1525" पर भी रहेगी...!!!
- धन्यवाद
शहर का भी हृदय कड़ा हो अब..
आपकी इस प्रस्तुति को आज की मिर्ज़ा ग़ालिब की 145वीं पुण्यतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
आज लोग आत्मकेंद्रित हो गए हैं ....सार्थक आह्वान स्वप्न के माध्यम से ..
latest post प्रिया का एहसास
bahut hi sunder bhavpurn kavita kamal ka likha hai
rachana
ek naya nazariya shahar ki bhawabhivyakti ka !
सुंदर..मार्मिक अभिव्यक्ति !
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