10 वाट के बल्व की हलकी रौशनी
हाथो में काली चाय से भरा
बड़ा सा मग
बढ़ी हुई दाढ़ी
खुरदरी सोच व
मेरी, मेरे से बड़ी परछाई !
है न आर्ट फिल्म
के किसी स्टूडियो का सेट
एवं मैं !
ओह मैं नहीं ओमपुरी
जैसा खुरदरा नायक !
परछाई से मुखातिब
हो कर -
तू कब छोड़ेगा मुझे
'उसने'
'उसकी मुस्कराहट ने'
और 'उसके साथ की मेरी ख़ुशी'
सब तो चले गए ....
फफोले आ गए होंठो पर
मुस्कुरा न पाने की वजह से
पर तू ...
रौशनी दीखते ही
मेरे वजूद से निकल पड़ता है
और रौशनी छुटते ही
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ'
वजूद मेरा खुरदडा थोडा
और थोडा कड़वा-गरम
जैसे ड्रामेटिक क्लाइमेक्स के साथ
मैं व मेरी परछाई ............!!
41 comments:
बढ़िया विचार |
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Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
Parchaayi sadaa hamara sath deti hai n especially tab jab sab sath chodh jaate hain :)
और रौशनी छुटते ही
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ'
bahut hi sunder !!
अगर कहूँ कि कविता बहा ले गयी अपने साथ तो शत प्रतिशत सत्य होगा .... साकार होती आहिस्ते आहिस्ते अपनी छाप छोडती बेहतरीन कविता ... कई अंश बहुत ही सुन्दर बन पड़े हैं .... बहुत बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..वाह ....... !!
सिमट आता है मेरे आगोश में
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ- बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .
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रछाई से मुखातिब
हो कर -
तू कब छोड़ेगा मुझे
'उसने'
'उसकी मुस्कराहट ने'
और 'उसके साथ की मेरी ख़ुशी'
सब तो चले गए .... सुन्दर अभिव्यक्ति
कमाल का बिम्ब वाह
है न आर्ट फिल्म
के किसी स्टूडियो का सेट
एवं मैं !
ओह मैं नहीं ओमपुरी
जैसा खुदरा नायक !
बहुत बढ़िया.....
धीमी आंच पर पकी हुई कविता...
अनु
बहुत ही बढ़िया लगी यह रचना ..सच के बहुत करीब ...ग्रेट
हमका तो लगा कि गुरुदत्त जी आकर खड़े हो गए हैं....काहे कि अइसा सिचुएशन क्रिएट करके उसका दृश्य तो डायरेक्टर ही न खीचता है। परछाई हाय रे तेरी कहानी
मैं व मेरी परछाई ............अकेले में बतियाते हैं.हसते हैं ,रोते हैं और फिर गाते हैं.और फिर एक हो जाते हैं ......
खुबसूरत अहसास !
शुभकामनायें!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (30-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
ओह मैं नहीं ओमपुरी
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ'
वजूद मेरा खुरदडा थोडा
और थोडा कड़वा-गरम
जैसे ड्रामेटिक क्लाइमेक्स के साथ
मैं व मेरी परछाई ....बहोत ही सुंदर अभिव्यक्ति
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ'
वजूद मेरा खुरदडा थोडा
और थोडा कड़वा-गरम
जैसे ड्रामेटिक क्लाइमेक्स के साथ
मैं व मेरी परछाई .....bahut sunder
परछाईयाँ साथ ही तो रहती है ....बहुत बढ़िया
खुरदरी सोच व
मेरी, मेरे से बड़ी परछाई !.....
और
रौशनी दीखते ही
मेरे वजूद से निकल पड़ता है
और रौशनी छुटते ही
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में.........
उम्दा पंक्तियाँ बन पड़ी हैं !! वास्तव में पूरी कविता ही खूबसूरत है :))
खुबसूरत रचना ... मन को सीधे छू गयी
शीर्षक दिखते ही सब से पहले दिमाग मे आया ... मैं व मेरी परछाई - अक्सर साथ रहते है ... ;)
बाकी तो हुज़ूर आप भी जानते ही है कि आज आप कमाल किए है ... अब हम भला क्या कहें ... फिर भी ...
वाह हुज़ूर वाह !!
जय हो मुकेश भाई !
आज की ब्लॉग बुलेटिन 'खलनायक' को छोड़ो, असली नायक से मिलो - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
परछाई ....हम सब की जिंदगी का सच
कम से कम साथ तो सदा निभाती है।
बहुत बढ़िया
मुकेश यह कहना गलत नही होगा कि ये एक बेहतरीान अहसासों से लिपटी हुई रचना है एक ही साँस में पढ़कर उतर जाता है इंसान कुछ और माँज दिया जाये तो क्या कहने। बहुत-बहुत बधाई मज़ा आ गया पढ़ कर।
शानू
बहुत ही खूबसूरत अहसासों से सजी एक बहुत ही खूबसूरत रचना ! मन को गहराई तक़ छूती एक अनुपम कृति ! शुभकामनायें !
तुम और तुम्हारी परछाईं - दोनों के भावनात्मक वजूद में साम्यता है, किसी के जैसा नहीं, अपने जैसा अपनी यात्रा में
बहुत सुन्दर....होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।।
पधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
रौशनी दीखते ही
मेरे वजूद से निकल पड़ता है
और रौशनी छुटते ही
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में.........
हर साया रोशनी का मोहताज होता है ..... :)
साए का अस्तित्व रौशनी से ही है !
रौशनी दीखते ही
मेरे वजूद से निकल पड़ता है
और रौशनी छुटते ही
फिर से
सिमट आता है मेरे आगोश में
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ'....तब तो सच्चा साथी हुआ न ......जो बुरे वक़्त पर साथ रहे ...
बहुत बढ़िया ...एक अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत कविता
अपनी ही परछाइयों में खुद का एहसास ढूंढती .. विचार की तरह फैलती रचना ...
बहुत खूब ...
बहुत ही बढियाँ रचना है. बिलकुल किसी आर्ट फिल्म जैसा...चाय की चुस्की के साथ ढलता हुआ सूरज और ये कविता...क्या बात हो..?
बहुत ही बढियाँ रचना है. बिलकुल किसी आर्ट फिल्म जैसा...चाय की चुस्की के साथ ढलता हुआ सूरज और ये कविता...क्या बात हो..?
khubsurat ...
मेरे इतने करीब की
समा जाता है मुझमे
एक अहसास की तरह
'मैं हूँ न तेरे साथ'
सुन्दर अभिव्यक्ति
वाह्ह्ह्हह्ह सुन्दर प्रस्तुती ......
क्या बात है ...काली चाय का मग, ओमपूरी सा खुदरा नायक, और ड्रामेटिक क्लाइमेक्स क्या गज़ब के बिम्ब हैं विचारों की अभिव्यक्ति लिए.
बहुत खूब.
परछाई और आईना अक्सर ही कविता मे ताक झांक करते है... और व्यक्तित्व के अनछुवे पहलुओं को भी उजागर कर देते है...ऐसी अभिव्यक्ति सहज नहीं होती... बहुत मर्मस्पर्शी बन पड़ी है आपकी कविता... अनेकानेक शुभकामनाए,,,:)
परछाईं... सिर्फ मेरी, मेरी ही होती, मेरे लिए मेरे साथ... गज़ब की अभिव्यक्ति, बधाई मुकेश.
बहुत सुन्दर रचना
aagrah hai mere blog main bhi sammlit hon khushi hogi
jyoti-khare.blogspot.in
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