जिंदगी की राहें

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Saturday, August 4, 2012

अख़बार

ब्लॉग्गिंग के शुरुआत के समय की ये रचना..... पिछले पोस्टस देख रहा था, तो एक दम से अच्छा लगा... बेशक तुकबंदी है ... पर मुझे खुद को अच्छी लगी... तो शेयर कर रहा हूँ....!!!
















दिन था रविवार,
सुबह की अलसाई नींद
ऊपर से श्रीमती जी की चीत्कार...
देर से ही सही, नींद का किया बहिष्कार
फिर, चाय की चुस्की, साथ में अख़बार
आंखे जम गई दो शीर्षक पर
"दिल्ली की दौड़ती सड़क पर, कार में बलात्कार"
"सचिन! तेरा बैट कब तक दिखायेगा चमत्कार"


सचिन के बल्ले के चौके-छक्के की फुहार
हुआ खुशियों का मंद इजहार
दिल चिहुंका! हुआ बाग-बाग! चिल्लाया॥
सचिन! तू दिखाते रह ऐसा ही चमत्कार
कर बार-बार! हजारो बार......

तदपुरांत, धीरे धीरे पलटने लगा अखबार
पर, तुरंत ही आँखें और उँगलियों ने किया मजबूर
आँखे फिर से उसी शीर्षक पर जा कर हो गयी स्थिर
एक दृश्य बिना किसी टेक-रिटेक के गयी सामने से गुजर 
सोच भी गयी थम!
आँखे हो गयी नम!!


उसी दिल से, वहीँ से, उसी समय
एक और बिना सोचे, समझे, हुआ हुन्कार
क्या
क्या ये भी होगा बार-बार!! हजारो बार..
क्या ऐसे ही महिलाओं की इज्जत होगी तार-तार.....
आखिर कब तक.....................!!!!!!!!!!!!!!!


37 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अब तो यह रोज़ की खबर है .... पता नहीं मानसिकता कहाँ जा रही है

Rajesh Kumari said...

आज के दौर में तो ये रोज की खबर हो गई इसलिए अब आँखे नम नहीं कुछ करने की जरूरत है ......बहुत विचारणीय प्रस्तुति

रेखा श्रीवास्तव said...

अब ये खबरें एक बार नहीं एक ही अखबार में बार बार पढ़ाने को मिलती हें. हम कहाँ जा रहे हें? क्योंकि कहीं न कहीं हमारी चूक है कि बच्चे भटक रहेहैं.

Anju (Anu) Chaudhary said...

सही मुद्दा उठाया हैं कि
आखिर कब तक ?????

जिसका कभी कोई जवाब ही नहीं आया आज तक .....

Unknown said...

कोई जवाब ही नहीं

ऋता शेखर 'मधु' said...

पोस्ट पुरानी है किन्तु आज की परिस्थिति के लिए भी बिल्कुल सटीक !

vandana gupta said...

ये आज भी उतनी ही सटीक है मुकेश ………कुछ कहने को शब्द नही हैं।

रंजू भाटिया said...

आज का अखबार ..दुर्घटनाओं का अम्बार ...बहुत अच्छा लिखा है आपने इस विषय पर मुकेश .....

प्रवीण पाण्डेय said...

कहाँ कुछ बदला है..

ANULATA RAJ NAIR said...

बेतुकी बातों से अच्छी तुक मिलाई आपने...
अखबार पढ़ने को अब जी ही नहीं करता...
बहुत अच्छी ,सार्थक पोस्ट..

अनु

अरुण चन्द्र रॉय said...

कुछ कहने को शब्द नही हैं...

kshama said...

Hmmmm ye kahan ja rahe hain ham!

रविकर said...

असहनीय बंदिशें सही हैं,
जुल्मों की इंतिहा हुई है |
सदियों से अपमान-ताड़ना,
कडुवे-कडुवे घूँट गटकती |
नारी जागी-मिला समर्थन,
आज मीडिया भी व्यापारी -
खबर मसाले दार बना के,
चटकारे ले खूब कही है ||

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

आज भी.... बल्कि कुछ ज्यादा प्रासंगिक रचना...
सादर.

वाणी गीत said...

समाचार हो या अखबार में , पढने का मन ही नहीं होता , रंगे होते है अखबार घटनाओं से !

विभा रानी श्रीवास्तव said...

क्या ऐसे ही महिलाओं की इज्जत होगी तार-तार.....
आखिर कब तक.....................!!!!!!!!!!!!!!!
kewal likhane ke liye ye shabd hain yaa sach me khoon me ubaal aataa hai likha kar aankh mund lenaa aataa hai ?

सदा said...

आपकी प्रस्‍तुति बिल्‍कुल सटीक है ... आभार

रश्मि प्रभा... said...

इसका कोई अंत नहीं , कभी नहीं

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अखबारों का चरित्र भी नहीं बदला.. वे तो और भी बड़े बलात्कारी हैं!!

Saras said...

जब तक इंसानों की खाल में वहशी जियेंगे ....तब तक ऐसे हादसे होते रहेंगे ......दु:खद ..!!!!!

amrendra "amar" said...

ab to roj ka yahi kissa hai

दिगम्बर नासवा said...

आज के अखबार भरे रहते हैं ऐसी ख़बरों से ... समाज कहां जा रहा है कहना मुश्किल है ...
भावमय रचना ...

संजय कुमार चौरसिया said...

आज की परिस्थिति के लिए बिल्कुल सटीक !

Sadhana Vaid said...

अखबार प्रतिदिन ऐसे ही हृदयविदारक समाचारों से भरे रहते हैं और शायद प्रचुर मात्रा में हर रोज इस तरह के समाचारों को देख पढ़ सुन कर लोग भी उदासीन एवं संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं ! सार्थक प्रस्तुति के लिये आभार !

Vijay K Shrotryia said...

praasangik,,,saarthak...va ek soch ko janm deti rachna..... badhai.....

pichley varsh maine ek rachna likhi thi.... akbaron par.... dekheyn...

http://vkshrotryiapoems.blogspot.in/2011/04/bachchey-train-to-celhi.html

प्रियंका गुप्ता said...

इसका कोई उत्तर मिलेगा भी नहीं...शायद कभी नहीं...एक विचारणीय प्रस्तुति, बधाई...
प्रियंका

Satish Saxena said...

शायद खराब लोग हर जगह मिलेंगे ...

Santosh Kumar said...

आजकल की जिंदगी पर कटाक्ष .. सच अखबार बस यही सब छापने को रह गए हैं क्या.. लोगों के कृत्य भी तो ऐसे है..

सुन्दर रचना.

Nityanand Gayen said...

असरदार कविता , झकझोरती चेतना की आँखें खोलती रचना . सादर

Pratik Maheshwari said...

तुच्छ मानसिकता का जब तक खात्मा नहीं होगा ऐसी खबरें और कबाड़ लेख (जो पेपर में छपा था) हमें मिलते रहेंगे.. अपने आस पास से ही प्रयास शुरू करें!

Kailash Sharma said...
This comment has been removed by the author.
Kailash Sharma said...

आखिर कब तक? आज भी समसामयिक और सटीक..विचारों को उद्वेलित करती रचना..

mark rai said...

तदपुरांत, धीरे धीरे पलटने लगा अखबार
पर, तुरंत ही आँखें और उँगलियों ने किया मजबूर
आँखे फिर से उसी शीर्षक पर जा कर हो गयी स्थिर
एक दृश्य बिना किसी टेक-रिटेक के गयी सामने से गुजर
सोच भी गयी थम!
आँखे हो गयी नम!!....samvedana se paripurn!

Alpana Verma said...

सामायिक रचना .

डॉ. जेन्नी शबनम said...

सचिन की बल्लेबाजी के साथ ही स्त्रियों के साथ होने वाले दर्दनाक हादसे बढ़ते जा रहे हैं. हर दिन अखबार में ऐसी खबरें भरी रहती रहीं. बेहद संवेदनशील रचना.

Rewa Tibrewal said...

ye khabar roz padhne may tho atti hi hain...par dukh ye hota hai hum kuch kar nahi paa rahe .....kahan jaa rahe hain humlog ?

Udan Tashtari said...

हम्म...सटीक!!