उम्मीदों की बात कहूँ तो
कभी लगा था, वो'ह्रस्व उ' की तरह घूम फिर कर लौटेगी
पर 'दीर्घ उ' की सरंचना सरीखी
एक बार जो मोड़ से घूमी
दूर तक चली गयी
'ए-कार' सा रह गया अकेला
पर 'ऐ-कार' बनने की उम्मीद में
ताकता रहा हर समय एक आंख से 'चन्द्रबिन्दु' जैसा
किंतु परन्तु के सिक्के को उछाले
दरवज्जे से तिरछी हो, झांकी ऐसे, जैसे हो
'अ:' की तरह, दुपट्टा से खुद को छिपाए
बस, बेशक दरवाजा था बन्द 'ह्रस्व इ' सा
पर आ कार सा खुला, 'अ' आया और
'दीर्घ इ' की तरह अंदर से बहते प्रेम संग बन्द हो गया
जिंदगी फंसी रही 'ऋ' जैसे दुविधाओं में
पलटती तो कभी खोलती रही
पर अंततः 'ओ-कार' के झंडे में
आना ही पड़ा 'औ-कार' की तरह उसको भी।
इस तरह, स्वरों को मिल ही गया सुर।
~मुकेश~ #poetryonpaper
12 comments:
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर और सार्थक।
बहुत सुंदर।
वाह!
क्या बात है बहुत बढ़िया लिखा है हार्दिक बधाई और धन्यवाद
Thanks for your life sever blogg.thanks for your important time
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जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (३०-0६-२०२१) को
'जी करता है किसी से मिल करके देखें'(चर्चा अंक- ४१११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह! शब्दों की संरचना में छुपा दर्शन लिख दिया आपने । अभिनव सृजन ।
श्रेष्ठ सुंदर।
बहुत सुंदर
सुंदर रचना
भैया इसमें कुछ वल्गर कमेंट भी दिखाई दे रहे हैं कृपया प्रोटेक्शन लगा दे
वाह! बहुत सुन्दर।
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