सुनो
पिछले बार, याद है न
कैफे कॉफी डे के काउंटर पर
मैंने निकला था 500 का कड़क नोट
लेना था केपेचिनों का दो लार्ज कप
वो बात थी दीगर
कि, पे किया था तुमने
जिससे
थोड़ी असमंजस व संकोच की स्थिति के साथ
फिर से डाल लिया था, पर्स के कोने में
अकेला नोट पांच सौ का !
उस पल लगा था अच्छा,
चलो बच गए पैसे !!
प्यार और प्यार पर खर्च
क्यों होते हैं बातें दीगर
आखिर खाली पॉकेट के साथ भी तो
चाहिए थी
प्यार व साथ
सुनो
पर वहीँ 500 का नोट
सहेजा हुआ है पर्स में
तुम्हारे दिए गुलाब के कुछ पंखुड़ियों के साथ
क्योंकि तुमने काउंटर से जब उठाया था
कि पे मैं करुँगी
तो तुम्हारे हाथों के स्पर्श से सुवासित
वो ख़ास नोट
हो गयी थी अहम्
सुनो
शायद तुम्हारी अहमियत पर भी लग चुका है पहरा
तभी तो
अब तक सहेजा हुआ था वो ख़ास नोट
कल ही बदल कर ले आया
सौ सौ के पांच कड़क नोट
सुनो
चलें चाय के ढाबे पर
दो कटिंग चाय आर्डर करूँगा
उसी सौ के नोट के साथ
कल मिलोगी न!!
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:) :) :)
2 comments:
सुन्दर और सामयिक कविता
बहुत खूब ... ये पांच सौ का नोट चाय पिलाए या नहीं पर अपना काम जरूर कर जायेगा ...
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