सुनो !
आज एकदम से मेरे पर्स से खनक कर
वो ख़ास "श्री यन्त्र" सा सिक्का गिरा
और, गिरते ही छमक कर तेरी यादें भी कुलांचे मारने लगी !
हाँ, बता दूं पहले ही संजो रखा है
अब तक
उस ख़ास "दस पैसे के सिक्के को "
याद है न वो मेरी करतूत !
जिस पर तुम खिलखिलाते हुई कही थी
बेवकूफ, उल्लू - क्या बच्चो सी करते हो हरकत !
एक छोटे चिंदी से कागज के टुकड़े को
दिल के शेप में काटकर
लिखा था तुम्हारा नाम
रेनोल्ड्स के कलम से !
हाँ, मैंने खुद से लिखा था,
तुम्हे तो पता ही था, मेरी हैण्ड रायटिंग
थी थोड़ी खुबसूरत
अब उसको चिपका कर
उस ख़ास सिक्के पर........!
रख दिया था ट्रेन की पटरी पर
दूर से आती आवाज.........कू छुक छुक !
साथ ही मेरा मासूम धड़कता दिल ... धक् धक्!
और, बस कुछ पलों बाद !!
गोल चमकते सिक्के में गुदा हुआ था तुम्हारा नाम !
चंचल सोच कह उठी - अमर हो गयी तुम !
और तब से, वो
पतला सा चमकीला सिक्का, तुम्हारे नाम के साथ
है मेरे पर्स में सुरक्षित
तुम्हारे चले जाने के बाद भी !!
आखिर कर दिया था,
दस पैसा कुर्बान मैंने
तुम पर, बिना बताये !
वो तुम्हारी चिढ़न, वो जलन
वो अमूल्य प्यार
और नाम
सब है धरोहर ............पर्स के कोने में !!
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तभी सोचूं ये पर्स इतना भारी क्यों होता है :D
5 comments:
सुन्दर रचना
bahut sundar...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " नो प्लेस फॉर मूत्र विसर्जन इन दिस कंट्री " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
तभी सोचूँ ये पर्स इतना भारी क्यूं लगता है............।
बहुत खूबसूरत खयालो को कविता में पिरोया है । बहुत सुंदर ।
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