जिंदगी की राहें

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Sunday, November 1, 2015

सुनो!


सुनो !
ये सम्बोधन नही है
इसके या उसके लिए
समझ रहे न तुम !
ओ हेल्लो !!

तो सुनो न
सुन भी रहे हो
या सुनने का बस नाटक!

सुनो !
बेशक करो नाटक
या फिर
रचते रहो स्वांग!!

तुम्हारा
ये स्वांग ही
है बहुत
हम जैसे हारे हुए लोगो का
सम्पूर्ण सम्बल !!

तो बस !!
बेशक तुम मत करना पूरा
मत मानना
मेरी कोई भी बात !

पर मेरे
हर 'सुनो' सम्बोधन का
ध्यान मग्न हो
सुनने का स्वांग
तो रच ही सकते हो
है ना!

सुनो
सुन रहे हो न गिरिधर !!
बड़े नाटकबाज हो यार !!
------------------
सुनो न !!!


6 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

अच्छी कविता मुकेश जी। समय के मच्योर हो रही है कविता।

Manoj Kumar said...

सुन्दर रचना

निवेदिता श्रीवास्तव said...

good one .....

Unknown said...

behad sahaz-saral rachna..sundar.

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

नमस्कार,
आप सबके स्नेहिल सहयोग से ‘ब्लॉग बुलेटिन’ ने १३ नवम्बर को अपने चार वर्ष पूरे कर लिए हैं. ख़ुशी के इस अवसर पर आज की पोस्ट “चार वर्ष की स्नेहिल यात्रा, अपने साथियों के साथ - ब्लॉग बुलेटिन” को ‘ब्लॉग बुलेटिन’ में आपके द्वारा लगाई गई आपकी पहली पोस्ट के द्वारा सजाया गया है. आपके सादर संज्ञान की तथा स्नेहिल सहयोग कि सदैव अपेक्षा रहेगी.. आभार...

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर रचना मुकेश जी