पहली बरसात की हलकी फुहार
मंद मंद बहती पवन की बयार
अंतर्मन में हो रहा था खुशियों का संचार
अलसाई दोपहर के बाद
उठ कर बैठा ही था
बच्चो ने कर दी फरमाइश
पापा! चलो न "गार्डेन"!!
मैंने भी "हाँ" कह कर
किया खुशियों का इजहार
और पहुच गए "लोधी गार्डेन!!!!
मौसम की सतरंगी मस्ती
खेल रहे थे, क्योंकि थी चुस्ती
हमने भी बनाई दो टीम
लिया प्लास्टिक का बैट
उछलती हुई टेनिस बॉल
पर लगाया एक शौट
जो उड़ता हुआ जा पहुंचा
पेड़ के पीछे, झाड़ी के बीच!!
नौ वर्षीय बेटा दौड़ा
पर उलटे पैरों लौटा
बडबडाया
वहां है कोई, मैंने नहीं लाता....
आखिर गया मैं
पर मैं भी लौटा बिना बॉल के
होकर स्याह!
खेल हो गया बंद
सारे समझ न पाए
हुआ क्या???
धीरे से, श्रीमती को समझाया
अरे यार! कैसे लाऊं बॉल
स्तिथि बड़ी है विषम
पता नहीं क्यूं ये युवा जोड़े
अपने क्षुदा पूर्ति और काम वासना
के सनक को
को कहते हैं, हो गया है प्यार
पब्लिक प्लेस पर
इस तरह का दृश्य गढ़ कर
क्यूं करते हैं हमें शर्मशार
मेरे आँखों में तभी कौंधा
HONOUR KILLING जैसा शब्द
लगा ये ऐसे मुद्राओ के साथ
हो नहीं रहा इज्जत से खिलवाड़
क्या इन झाड़ियों में छिप कर
होने वाला जिस्मानी प्यार
कर नहीं रहा युवाओं के
माता-पिता की इज्जत तार-तार
क्यूं इनके आँखों की शर्म
इन्हें बना देती है बेशर्म
क्यूं? क्यूं?? क्यूं???
63 comments:
sahi kah rahe hain ............ye bhi to honour killing hi hai.
मुकेस बाबू आपका बात सच्चा है... बहुत एम्बैरेसिंग होता है परिवार के साथ ई सब झेलना... मेट्रो में भी रोज देखने को मिलता है ई दृस्य... लेकिन का कीजिएगा... बोलिएगा त स्वतंत्रता, मोरल पुलिस जईसा मुद्दा खड़ा हो जाएगा. ई लड़का लड़की लोग माँ बाप का ऑनर किलिंग करा रहा है हर रोज ...सही मुद्दा उठाए हैं आप!
आलम ये है कि हवा भी शर्मसार हो चली है
पंचतंत्र की कहानियों से परे
नन्हीं उम्र अवाक है.............
बहुत ही शानदार रचना
Thanx Vandana jee!!
Bihari babu ka kahen.........aisan yuva joda se bahut pareshane sach me hota hai.........aab hi batayen kya asar padega bachcho par.....
मानव जीवन बड़ा बेहया है....उसे बुरी से बुरी बातें भी कुछ समय बाद याद नहीं रहती ...मैं चाहूंगी कि ये घटना तुम्हारी कविता के पाठको को याद रहे ...हम ऐसे संस्कार बच्चों में दें , उन्हें समझने का ,समझाने का धैर्य खुद में रखें ताकि ऐसी परिस्थिती से हमें न गुजरना पडे..
बहुत खूब लिखा है और मेरे विचार से अपनी भावनाओं को शब्दों में ढलने में कामयाब हुए हो .....लिखते रहो ...
ati sundar .....bahut sahi likha hai aapne iske liye koi sharm nahi aati inhe are gar itni hi mohabbat h to shadi kar lo problem kya hai ,apne ghar pe mohabbat karo ..park m kyun
Ye to Khule vichar hain bhaiya , kuch log ke liye --------------
ab ijjat kise pyari hai, kisi ladki kiske sath aur kiska ladka kis ladki ke sath.
mukesh jee ,
namaskar !
aaj ke samay chitran aaj ka yatharth saamne rakh diya ,
sunder
सही समय पर सही कविता.. ये भी एक समस्या बनती जा रही है.. शर्म हमें आ जाती है पर इन हवस के पुजारियों को नहीं.. आभार..
Yah to sharmsaar karne wali baat hai..par bade shahron me ya chahe ho gaanv yah barson chala aa raha hai..
Mukesh jee...sahi kaha aapne ye honour killing hi to hai.
parivar ke sath kahin aisi jagah jana dubhar ho gaya hai .
hamesha ki taraah yatharth se aapne fir se milwa diya hume.
bahut subder ur vichaarniyya rachna ke liye badhai sweekar karen.
रश्मि दी, आपके छोटे से कमेन्ट में बहुत बड़ी बात छिपी होती है,
सच कहा पुतुल आपने, मेरी कोशिश रहेगी, मैं ये बात अपने बच्चो में तो कम से कम समझा ही पाऊं, की प्यार को प्यार समझो जिस्मानी हवस नहीं.......
निर्झर नीर जी यही तो मैंने बी कहा, प्यार करो..........लेकिन सीमा में रह कर.....
kya kahu ? aaj pyaar main pavitrata ki jagah sirf hawas rah gayi hai...saccha pyaar rare hai... sach kaha Maa ne - hawa bhi sharmsaar hai...!
Behtarin rachna...! keep writting Dost Mama....!
मुकेश भाई!
जय हो!
खरी-खरी! जब बेडरूम प्ले ग्राऊंड हो गया है, तो बच्चों के साथ बेडरूम में खेलें!
बाप ना सही, पति भी ना सही, छड़ा ही सही, पर सहमत हूँ आपसे!
एक सच्चा दृश्य उपस्थित कर दिया...ना जाने प्यार समझतें भी हैं या नहीं...ऐसे लोगों को आस पास किसी की परवाह नहीं होती...विचारों को सही दिशा दी है...
मैंने नहीं लाता....इस पंक्ति में मैंने की जगह मैं कर लें...और कोको क यहाँ एक को हटा दें...
सुझाव को अन्यथा ना लें...
संवेदनाओं से भरी रचना है..
किसी भी किलिंग को तो सही नहीं ठहराया जा सकता । लेकिन हमारे युवाओं का बदलता व्यवहार भी कम शर्मनाक नहीं है । इस पर कुछ प्यार के ठेकेदार प्यार शब्द को कुछ ज्यादा ही ग्लेमेराइज़ कर रहे हैं ।
सगोत्रीय विवाह पतन की ओर पहला कदम है ।
बिलकुल सही बात है मगर आज की युवा पीढी को कौन समझाये। विचारणीय पोस्ट धन्यवाद।
मुकेश जी धन्यवाद की आपने इस पर संवाद का मौका दिया। मैं आपसे और सारे सम्मानीय टिप्पणीकारों से असहमत नहीं तो पूरी तरह सहमत भी नहीं हूं। मैं यहां बंगलौर में रहता हूं। यहां भी एक पार्क है बहुत मशहूर जिसका नाम है लालबाग। वहां भी ऐसे दृश्य आम हैं। निश्चित रूप से किसी भी सार्वजनिक स्थान पर अश्लील व्यवहार दंडनीय अपराध है और वह तो पक्के तौर पर नहीं होना चाहिए। लेकिन ऐसे बहुत से व्यवहार हैं जो दंडनीय हैं और हम सब करते हैं। भले ही वह बस में कम पैसे देकर बिना टिकट लिए यात्रा करना,सड़क पर जहां पेशाब करना मना हो वहां पेशाब करना। ओवरटेक करना। और भी पता नहीं क्या क्या।
खैर आपको सिक्के के दूसरे पहलू पर भी विचार करना चाहिए। वह यह है कि ऐसे दृश्य आपको बड़े शहरों में ही मिलेंगे। कस्बों और छोटे शहरों में नहीं। इस बात पर विचार करिए कि बड़े शहरों में ये प्रवृति क्यों पनप रही है। सबसे बड़ा कारण है शायद घर में वह जगह नहीं है। यह कोई जरूरी नहीं है कि ये जो जोड़े जो आप देख रहे हैं वे अनैतिक जोड़े हों। इसलिए भोपाल में तो एक पार्क ही बनाया गया है जिसका नाम है एकांत पार्क।
इसलिए सब धान बाइस पसेरी नहीं हो सकती।
और जहां तक ऑनर किलिंग का सवाल है तो वह तो बंद कमरों में भी होती है।
बहुत सही लिखा है ..वाकई इस तरह के दृश्य शर्मसार कर देते हैं ..पर कौन इन्हें समझाए और कैसे?
achhi rachna...
mukesh ji
ek badti samshya hai ye bhi hamare desh mein..pahle to pachimi desho ki tarah yaha hath me hath dalkar ghumne walo ki kami na thi magar ab to aise drishya bhi mil jate hai jo hame to sharmsaar kar de magar unko nahi jo aisa karte hai
Sahi kaha aapne. Aapke nimantran par apke blog par aayaa hun aur bahut achchha laga. aapne bahut sahi sawaal uthaaye hain. achchhi seekh deti kavita bahut pasand aayi.
.
--Gaurav 'lams'
mukesh ji,
rachna ke maadhyam se aapne bahut achhi tarah kaha hai, aaj ki badalti jiwan shaili jo bachchon par bura asar daal rahi.
dilli hin nahin aur bhi bade shahron mein aisa dekhne ko milta hai, shayad ye ek chalan sa ho gaya hai. pariwar ke sath hum hon ya koi akela vyakti, sharm to aati hai ye dekhkar.
lekin ek baat ye bhi hai ki aise jode kahan jaayen? ameer gharaanon ke bachchon ke paas paisa hai to hotel chal dete, lekin jo gareeb hain wo kya karen? kaha jaayen? paksh ki baat main nahin kah rahi lekin ye bhi sach hai ki aisa karne keliye doshi humara samaaj hin hai. agar kisi ke prem ko saharsh maanyata mil jaaye aur vivaah keliye pariwar samaj raaji ho jaaye to koi kyun is tarah chhup kar jaayega. mann to sabke paas ek saa hin hai par sahuliyat nahin. bas isi ka ek pahlu hai ye.
yun saamaanya soch se dekhein to sharmsaar ho hin jate hain hum sabhi.
achhi rachna, shubhkaamnaayen.
अच्छा विषय उठाया है आपने, वाकई इस तरह की घटनाएँ शर्मशार कर जाती है |
पश्चमी सभ्यता तेजी से हावी हो रही है, अब तो हिंदी शब्दकोष से शर्म जैसे विषय को हटाने की मुहीम चलेगी |
hmm...
to foto bhii khiinch liya aapne..!
yah ek lambi bahas ka mudda hai..sabhi svatantra hain lekin hamari svatantrata vahiin samapt ho jati hai jahan se doosre kii naak shuru hoti hai aakhir hm samajik prani hain aur samaj ke banaye niiyam ka bhii hmen palan karna hai. pyar karo magar yah dhyan rahe ki kisi kii naak na kate.
तारकेश्वर जी, सुनील जी.........धन्यवाद्, आपकी टिपण्णी के लिए
हाँ! दीपक जी, देखिये ने हमें ऐसी शर्म आयी, की हमारे शब्दों ने कुछ बोल दिया...लेकिन इन्हें कहाँ शर्म!!
जी क्षमा जी.........आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद्..
नीलम! अगर आप जैसे हमें प्रोत्साहित करते रहें, तो जरुर मेरी लेखनी......कुछ न कुछ kahti रहेगी.....:)
मुकेश जी आपने कहा था समय मिले तो आइएगा। देखिए समय निकाल लिया या कहूं कि समय निकल आया। आया था कम्पयूटर पर दो मिनट का काम करने, औऱ आ गया आपकी पोस्ट पर। आपके शहर से नाता है मेरा। हमारे एक रिश्तेदार रहते हैं। नाम याद नहीं ये अलग बात है। आपके ब्लॉग में अपने शहर के छूटने की कसक दिल्ली पर फिरती आपकी नजर औऱ शब्द से झलक रही है। वैसे आप जिस पार्क में गए उसका नाम क्या था..आगे से जाने से पहले पूछ लीजिएगा मुझसे। ऐसे पार्क तो दिल्ली में मेरे जन्म से पहले से ही हैं। औऱ सही भी है कि कुछ जोड़े घर में जगह न होने के कारण वहां जाते हैं। यहीं पला बढ़ा हूं, सो दिल्ली मेरी जान है। इतनी बुरी भी नहीं है दिल्ली। जरा अपने सायों से निकल कर अपने लोगो को तलाशिये, कोई न कोई मिल ही जाएगा। कोई न सही हम ही सही। तो उदास क्यों होते हैं। और फिर तो आप औऱ हम भी जवान है आप भी। सैफ खान ने तो हम सब लोगो को समझा ही दिया है। करीने से करीना को संभाला हुआ है उन्होंने। वही क्यों सल्लू मियां भी हैं। शतक कहीं औऱ मारा हो, पर प्रेमिकाओं के मामलें में सैफ के भी उस्ताद हैं। कतरीना ...सॉरी कैटरीना अभी करीना से कम उम्र हैं। भई इतने महान लोग बुढ़े नहीं हुए तो हम औऱ आप कैसे हुए।
औऱ दिल्ली से लेकर पार्क तक आपका घूमना भी देख लिया।
aaj ki jeevan shaili ko bahut hi umda avam sahaj tarike se aapne bhaiya prastut kiya hai.....pata nahi jisi aaj ki youth pyar kehti hai wo pyar hai ya sirf ek zaroorat ye to unki mansikta aur soch ko darshati hai ki wo kaisa vataran taiyar kar rahe hain ....
bahut hi acchi rachna hai ...bal man ke majbooriyan aur jawani ki belagam karastaniyan dono hi mahatvpoorn tarike se darshaya hai .....[:)]
सराहनीय रचना ।
प्रीती..........तुम्हें भी धन्यवाद......न!!:डी
आशीष, निर्मला जी, धन्यवाद्!
संगीता दी, मुझे जरुरत है, आप सबके सलाह की.........
सच कहा डॉ. दाराल आपने........
बहुत ही शानदार रचना...www.gaurtalab.blogspot.com
क्या कहूँ सब कुछ तो कह दिया है आपने हाँ ये सब सच है और इसे देख बड़ी शर्मिंदगी होती है
haan Rajesh bhaiya, bahut kuchh aisa hai, jo galat hai, lekin mujhe ye topic najar aaya to isse par koshish ki bas.......aur aap ho na.......mujhe sudharne ke liye..:)
क्या इन झाड़ियों में छिप कर
होने वाला जिस्मानी प्यार
कर नहीं रहा युवाओं के
माता-पिता की इज्जत तार-तार
क्यूं इनके आँखों की शर्म
इन्हें बना देती है बेशर्म
क्यूं? क्यूं?? क्यूं???
.....शानदार रचना !!
aapki baate aham hai ,lekin hum kisi pe jor aajma nahi sakte aur uljh bhi nahi sakte ,mamla dil ka hai jo manta nahi aur maryada pahchanta nahi .unhe apne siva kuchh nazar aata nahi ,khai bhi zanat nazar aati hai ,uchit anuchit aankhe dekh nahi pati hai .sahi bayan kiya hai .
mukeshji es kavita ka shuruaat aapne abhut hi achche se ki hai aapke kavita kaha se aarambh hote hai or kaha jate hai pata hi nahi chalta hai. har kavita ek samsya ke upper hote hai. par es baar jo yuva pede ke bare mai likha hai vo bade shahro ke liye aam baat ho gaye hai. or pareshani jab aate hai jab hum apne chote chote bachcho ke sath hote or sharm se apna sar jhuka lete hai. bahut achche hai aapke kavita
शिखा, सखी जी, गौरव जी धन्यवाद...........
जेन्नी जी, आपके कमेन्ट का इसलिए इंतजार रहता है, साथ ही आपके कही बातो में वजन भी होता है! धन्यवाद्!
क्यूं इनके आँखों की शर्म
इन्हें बना देती है बेशर्म
क्यूं? क्यूं?? क्यूं???
प्रेम ...तू कहाँ से कहाँ पहुँच गया रे ....?
क्या kahun .....??
बाल मिली या नहीं ....?
bahut sahee chitran kiya aapne......ye ek badee samsya bana hua hai........habas ka koi ant nahee........koi seema nahee ........ ye such to ye hai ki bado ko dhokha to de hee rahe hai khud bhee dhokha kha rahe hai.......neeyat agar saaf ho to public place par aisa karm koi nahee karega............
aaj kee sthiti aur yuva vyvhaar ko le ek sashakt rachana.........
मैं पहली बार इस ब्लॉग पर आई हूं |रचना बहुत अच्छी लगी बधाई |मेरे ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद |
आशा
प्रेम का बदलता रूप .एक विचारणीय मुद्दा है.
बहुत अच्छे से आप ने इस बात को अपनी कविता के ज़रिए रखा है.
kya khoob likha hai aapne.yah ekdam katu satya hai .aaj aisi koi jagah bahi hi nahi jinhe is tarah kiburaiyon se achhuut kaha ja sake.
poonam
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.....भावना प्रधान कविता....
mukesh jee ,
namaskar !
सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.
Sant jee, bahut bahut dhanyawad!
@Baichain Atma! bas koshish matra ki hai, dekhna to aapsabo ka kam hai , ki kaisa racha maine......
"bole to bindass"! achchha laga aap aaye bhi aur itne sashakt tarike se apne dil ki baat kahi, tahe dil se dhanyawad!!
Dipti!! tum jaisa blogger, har blogger ki jarurat hai, jo comments dil se dete hain.........:)
arunesh jee, Pk singh jee, Rachna jee, KK Yadav jee, dhanyawad!
.आपके एक एक शब्द में सच्चाई का भान
आज जहाँ भी देखो ये ही आलम है .... ..पार्क और गार्डन बच्चो के लिए बनाये गए है पर अब वहां
बच्चो के साथ जाना दुष्वार हो गया है
WAAH BAHUT HI SUNDAR RACHNA ...SAHI SACH KO BYAAN KAR RAHI HAI YAH ..BEHAD PASAND AAYI ..
सब तरफ यही हाल है, आँगन तो अब रहे नहीं, यही पार्क बचे थे जहाँ कुछ देर बच्चे खेलकर खुश हो लिया करते थे, बच्चों को क्या जवाब दें जब वो पूछते हैं, वहां क्यों नहीं जाना है बताइए? विचारणीय मुद्दा उठाया हैआपने.
जन्नी शबनम जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ उनका लिखा एक-एक शब्द इस कविता रूपी सिक्के के दूसरे पहलू को दर्शा रहा है।
विषय और लेख दोनों अच्छे है पर सोंचना हम सब को है. जो परिवेश हम दे रहे है अपने बच्चों को उसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा. आस-पास का समाज, हमारी बात-चीत की अश्लील भाषा, टीवी, मैगजीन, फ़िल्म... सब जगह का आलम यही है... जहाँ एक बड़ा निर्देशक/निर्माता किसी पोर्न स्टार को हीरोइन बना देता है... बचपन से हम बच्चों को सबसे प्यार करना, सच बोलना सिखाते है पर हर बार उन्हें अपने मतलब के लिए ही लोगों से नफरत और झूठ बोलना तक सिखाते है... ऐसे में उनका भटकाव होना बिलकुल लाजमी है... मैं ऐसे किसी कृत्य का पक्षधर नहीं हूँ बल्कि सबसे ज्यादा ग्र्हिना मैं ही करता हूँ... फिर भीं ऐसे हालात दूसरों के सामने न आये इसका इंतजाम भी तो हमें ही करना होगा. मुकेश जी आप तो वहां का दृश्य देखकर चुप-चाप वापस आ गए, जबकि आप शायद उन्हें टोक सकते थे, रोक सकते थे... पर आपने ये सोंचा होगा की क्या फायदा... बस यही "क्या फायदा" का जो सवाल है हमारे समाज को बिगाड़ता जा रहा है...
आपने इस विषय पर बहुत अच्छी पंक्तियाँ लिखी पर किनके बीच? कुछ सौ-पचास चुनिन्दा उन लोगों के बीच जो लेखन से जुड़े है और जिनकी सोंच पहले से ही बेहतर है... समस्या वो लोग है जिन तक आपकी बात पहुंची ही नहीं... समस्या जस की तस बनी रहेगी...
मेरे ख्याल से हम सबको ये कोशिश करनी चाहिए... क्या फायदा के सवाल से ऊपर उठकर...क्या होगा ज्यादा से ज्यादा हम असफल हो जायेंगे... पर सफलता होगी अपनी संतुष्टि की कि हमने कोशिश तो की....
एक बार फिर से बधाई अच्छे पोस्ट के लिए...
कविता निस्संदेह अच्छी है क्योंकि इसमें आपने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है. लेकिन सामाजिक दृष्टि से देखें, तो उन प्रेमी जोड़ों की भावनाओं का भी ख्याल करना चाहिए. राजेश उत्साही जी और जेन्नी शबनम जी के दृष्टिकोण से मैं सहमत हूँ. सार्वजनिक स्थान पर सबके सामने प्रेम-प्रदर्शन को मैं भी सही नहीं मानती, लेकिन यदि आजकल के युवा ऐसा करते हैं, तो ये उनकी मर्ज़ी. हम उन्हें समझा सकते हैं, सही राह दिखा सकते हैं, पर रोक नहीं सकते. ज़माना बहुत तेजी से बदल रहा है.हालीवुड की फ़िल्में आजकल धडल्ले से चलती हैं और उनमें ऐसे दृश्य आम होते हैं. युवा उन्हें देखते हैं और उनका अनुकरण करते हैं. जिन्हें और कहीं स्थान नहीं मिलता, वे पार्कों के कोनों में जगह ढूढते हैं.
मुम्बई के जुहू बीच पर आज से पन्द्रह-सोलह साल पहले ऐसे एक नहीं बहुत से दृश्य देखे थे, मुझे आश्चर्य भी हुआ था कि लोग उनलोगों पर ध्यान क्यूँ नहीं दे रहे हैं. बात यही है कि जब हम उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करके उन्हें अकेले छोड़ देंगे, तो ये बात उतनी बुरी लगेगी भी नहीं.
आज के सच को उजागर करती बहुत सार्थक प्रस्तुति..
कविता के माध्यम से एक ज्वलंत समस्या का चित्र का अनावरण किया है आपने सच में ऐसे सीन हर जगह मिल जायेंगे आज कल खुले आम और बड़े गर्व से इसे कहते हैं प्यार प्यार ऐसी स्थिति में देखकर कौन इज्जतदार ओनर किलिंग जैसी भावना दिल में नहीं लायेगा बहुत सार्थक रचना
शीर्षक पढ़ा तो मस्तिष्क में दूसरा ही दृश्य कौंधा था...पर सच में यह पहलू भी `ऑनर किलिंग' ही तो है...। भले ही इनमें से सब जोड़े अनैतिक न हों, पर बन्द कमरे के अन्दर की चीज़ें वहीं शोभा देती हैं...। पर क्या कह सकते हैं, आज की फ़िल्मों और इंटरनेट के इस युग में पर्दे के पीछे तो जैसे कुछ भी नहीं रह गया है...। हाँ, चाहे सिनेमा में हों या सार्वजनिक स्थल पर, ये दृश्य शर्मसार लोगों की आँखें झुका ही देते हैं...।
this composition has raised various questions .................its not so easy to relate this actions of so called love birds .........with Honour killing ........thats entirely different .....although these kinds of scenes are obscene to visualise .......esp with family ..
BUT the root of the problem lies sm where else....we will discuss again :))))))))))))))))))))
Neelima Sharma: एक ज्वलंत मुद्दे पर लिख देना आसान नही होता आपने बखूबी इसे लिख है ..... सुंदर प्रस्तुति
Tuesday at 17:07 · Unlike · 1
Shalini Gupta: aapne ek bahut badi baat samne laayi hai..ye mudda din par din badhtahi jaa raha hai...aaj ki generation isko kuch bura nahi maanti..aur hume purane jamane ka bata kar khilli udaati hai..par phir bhi isko rokne ke liye hum pehla kadam apne ghar se utha sakte hain..apne bachchon ko sahi galat ka pharak samjhakar..
13 hours ago · Like
इतनी पुरानी पोस्ट पर कमेन्ट करने आना पड़ा... कारण जो भी हो लेकिन बस यूँ ही....
कविता वाकई में अच्छी है लेकिन बाकी से तो असहमति हो सकती है न...???
वैसे तो पार्कों में इस तरह से बैठे कई जोड़े मिलेंगे... लेकिन हाथों में हाथ डाले ये आज़ाद परिंदे भला क्या करें..... कहाँ जायें... हाँ किसी भी तरह के शारीरिक क्रियाकलाप तो ज़रूर निंदनीय हैं लेकिन बस यूँ एक दूसरे की आखों में आखें डाले बात करते या फिर यूँ ही किसी की गोद में सर रख कर लेटे हुए इन बेचारों से ऐसी तल्खी क्यूँ... क्यूँ ???? क्यूँ ????
मुझे इसका जवाब चाहिए, भले ही आप कैसे भी दें... एक नयी कविता लिखें या जैसे भी....
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