जिंदगी की राहें

जिंदगी की राहें

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Friday, November 27, 2020

मोनालिसा


सुनो
सुन भी रही हो
सुनोगी भी
उफ़ सुनो न यार !

मैंने अपने जिंदगी के कैनवास पर
नोकदार डबल-एच पेंसिल से
खिंचा था, सिर्फ एक ही स्कैच
थी बहुत हल्की सी आभासी स्कैच
फिर मेरी दुनिया में तुम आ गयी
तुमने कोशिश की रंग भरने की
शुरूआती दिनों में, स्कैच के आउट लाइन पर
तुम्हारे भरे रंग, नहीं जंच रहे थे
पर जैसे जैसे, बीते दिन, बीती जिंदगी
ब्रश चला, रंग भरते चले गए, सुनहले
और, फिर, वो स्कैच, उसमे दिखने लगा
तुम्हारा अक्स !

बहुत बार, बदरंग सी लगी कैनवास
लगा, नहीं बेहतरीन बन पायी पेंटिंग
न तो कोई शउर, न ही कोई नजाकत
फिर,
मेरे अन्दर के पुरुष चित्रकार का विचलित मन
बनाऊं कुछ दूसरा, फिर से करूँ कुछ अलग कोशिश
पर मिली निराशा,
या तो पेंसिल की ग्रेफाईट टूट गयी
या जिंदगी का कैनवास ही मुड़-तुड गया !

अब अंततः, मुझे वही स्कैच
जो बनाई थी, पहली और अंतिम बार
मेरी लगती है सबसे बेहतरीन व सर्वोत्तम कलाकृति
अनमोल !

सुन रही हो न
अतिम बार कह रहा हूँ
गाँठ बाँध कर याद रखना

किसी ने कहा भी,
चित्रकार
जिंदगी में सर्वोत्तम कलाकृति एक बार ही गढ़ता है

मोनालिसा हर दिन नहीं गढ़ी जाती न !

~मुकेश~



Wednesday, October 21, 2020

प्रेम कविता लिखने की शर्त



प्रेम कविता लिखने की शर्त लगी थी
इस तंज के साथ कि
आज तक मुझ पर नहीं रच पाया कोई
प्रेम कविता !

बिन कहे कुछ
सोचा कि
लिखूं तो क्या लिखूं
होंठ लिखूं या लिखूं गुलाब की गुलाबी पंखुडियां
जो कभी हुआ करते थे प्रेम पत्र के साथ
रुमानियत भरने के लिए
हुआ करता था जो जरूरी

या फिर लिखने से पहले
ताकूं सुरमई आँखों में
हाँ, नजरों में अटकना ही तो है शायद
प्रेम के पहले पग पर ठिठकना
अगर अटका तो खोया
फिसला तो, हमें पता है
कह ही दोगी
ओये लड़के उतनी दूर तक नहीं !

खैर, रहने दी कविता
कर ली अपनी आँखे बंद
और फील करने लगा मुस्कराहट
तभी तो फैले बाहों से इंद्रधनुषी आसमान के साथ
महसूसने लगा तुम्हारी आहट
थे मेरे हाथो में तुम्हारे हाथ
थी स्पर्श की उष्णता
शायद कहीं प्रेम कविता की मांग में था
छिपा हुआ विस्मयकारी प्रेम भी तो

सोचा लिखूं तुम्हारे भरे हुए कंधे
और लिखूं तुम्हारी आवाज सुरीली
तभी आवाज सोचते ही फना होने लगी रूह
धधकने लगा अलिंद और निलय के बीच
बहने वाला रुधिर
टूटती नींद के साथ खिलखिलाते सपने भी तो
तकिये के अगल बगल से चिढाते हुए कह उठे
कवि तुम प्रेम में तो नहीं हो उसके

कब आ चुकी थी निद्रा
कब नींद में भी बहकने लगा था मन
पता चला तब,
जब तकिये में दबाये चेहरे को
करने लगा देह की यात्रा
देह से देह तक
कमनीयता से नज़ाक़त तक
मन से मन तक पहुँचने से पहले
पर, कुछ अजब गजब सोच भी
होती है प्रेम में निहित
किसी ने बताया था कभी
फिर जैसे चुप्पी होती है वाचाल
वैसे ही सोया हुआ जिस्म दौड़ता है अत्यधिक

चलो हो चुकी है अब भोर
फिर कभी लिखूंगा तुम पर
प्रेम और प्रेम कविता
आज तो बस जान लो
कवि के मन की बात कि
खिलखिलाते हुए लोग होते हैं खूबसूरत !

हाँ फिर से कह रहा हूँ
मुझे प्रेम कविता लिखते रहनी हैं
हर नए दिन में नए नए
झंकार था टंकार के साथ !
समझी ना !

~मुकेश~



Saturday, September 12, 2020

परिधि प्रेम की



परिधि सीमा नहीं होती
पर फिर भी,
एक निश्चित त्रिज्यात्मक दूरी में
लगा रहा हूँ वृताकार चक्कर
खगोलीय पिंडों सा
तुम्हारी चमक और तुम्हारा आकर्षण
जैसे शनि ग्रह के चारों ओर का वलय !
कहीं मैं धूमकेतु तो नहीं ।
2.
काश
संबंध होते
किवाड़ के कब्जे सरीखे
जो समेटे रखते परिधि में
काश
अधिकतम दूरी का भी होता ज्ञान
फिर संबंधों की
चिटखनी होती मजबूत
~मुकेश~


Wednesday, August 19, 2020

स्वरों को मिला सुर


उम्मीदों की बात कहूँ तो

कभी लगा था, वो
'ह्रस्व उ' की तरह घूम फिर कर लौटेगी
पर 'दीर्घ उ' की सरंचना सरीखी
एक बार जो मोड़ से घूमी
दूर तक चली गयी

'ए-कार' सा रह गया अकेला
पर 'ऐ-कार' बनने की उम्मीद में
ताकता रहा हर समय एक आंख से 'चन्द्रबिन्दु' जैसा
किंतु परन्तु के सिक्के को उछाले
दरवज्जे से तिरछी हो, झांकी ऐसे, जैसे हो
'अ:' की तरह, दुपट्टा से खुद को छिपाए

बस, बेशक दरवाजा था बन्द 'ह्रस्व इ' सा
पर आ कार सा खुला, 'अ' आया और
'दीर्घ इ' की तरह अंदर से बहते प्रेम संग बन्द हो गया

जिंदगी फंसी रही 'ऋ' जैसे दुविधाओं में
पलटती तो कभी खोलती रही
पर अंततः 'ओ-कार' के झंडे में
आना ही पड़ा 'औ-कार' की तरह उसको भी।

इस तरह, स्वरों को मिल ही गया सुर।

~मुकेश~ #poetryonpaper

Wednesday, July 15, 2020

न्यूज एंकर : कोरोना काल



लॉकडाउन की लीला ऐसी
कि इक्कीस उन्नीस करते हुए
चाहते न चाहते
कुछ घण्टों, मिनटों के दरमियान
पहुंच ही जाता है हाथ
पकड़ लेता हूँ रिमोट
टिपटिपाने लगती है अंगुलियां
कि शायद
कुछ अनचाहे न्यूज मे हो कुछ संवेदना
ऐसी भरी भारी उम्मीद को सुनने के लिए

हर बार उम्मीद का बस्ता उठाये
मन कहता है अबकी आएंगे कुछ अलग से व्यूज
जैसे आखिर हार गया कोरोना
या संवेदनाएं जीतने लगी
या फिर हम भारतीय
सोशल डिस्टेंसिंग की दूरी बनाकर भी
बरकरार रख पाए निकटता
धर्म से इतर रही कोशिश जान को बचाने की
आदि इत्यादि....

पर, इन दिनों
हर बार दरकती हैं उम्मीदें
चीखती हैं टीवी स्क्रीन
हर पल मृतकों की बढ़ती संख्या
विस्थापन का दंश झेलते भागते मजदूर
कोरोना के ऊपर भूख की छटपटाहट
पिज्जा के स्वाद की छटपटाहट
पूरे तब्लीगी समाज या कनिका जैसी की बेवकूफी
या संक्रमित लोगों की संख्या के
बढ़ते ग्राफ के रीयल न्यूज के साथ

दिखता है, चिल्लाता एंकर
जो संवेदनाओं के संवाहक के बदले
होता है चिन्दी उड़ाता हुआ शख़्सियत
हर चैनल पर अलग अलग
बेशक भेषभूषा हो अलग पर
पर हरकोई मर चुके दिल के साथ करते हैं
मौत के जलालत पर बात
किसका चैनल कितना तेज
कौन इस कठिन समय में भी
घर पर न रहकर स्टूडियो से
पहुंचते हैं ब्रेक करते हुए कारस्तानियों के साथ

मरती संवेदनाओं के संवाहक के रूप में
अब हर पल मार रहे ये न्यूज़ एंकर
सूचना के दौर मे
उम्मीदों से इतर डर और घृणा बांटते हुए
बता रहे हैं कि कौन है कितना तेज !

~मुकेश~


Wednesday, July 1, 2020

हार्मोनल चेंज ड्यू टू लव


सुनो न
हाँ संबोधित करने के लिए कहना ही होगा
सुनो न !
क्यों पर क्यों, आखिर सुनाऊँ क्या
जब, तुम्हें देखने भर से
बनने लगता है मुझमे, अत्यधिक मात्रा में
अड्रेनलिन व कार्टिसोल
जो धड़कनों के प्रवाह के आयाम को
पहुंचा देता है उच्चतम स्तर पर
बेशक जिससे शायद कहीं अंदर रहता है तनाव
पर वो होता है रुमानियत भरा
नहीं जानते कि वजह होती है डोपामाइन
जब उछाल मारती है ऊर्जा
उल्लास की फूटती है चिंगारी
जब तुम्हारे आगोश के आलिंगन का सुख
मिलता है तुमसे !
खोये रहते हैं तुममे
पलछिन, घंटे, दिन, रात बीतते रहे
मेरे खयालातों में बना रहा तुम्हारा बसेरा
क्योंकि तुम ही तो हो वो वजह
जिसने बढ़ाया सेरोटोनिन मुझमें
.... है न सही
उफ़्फ़ वो स्पर्श, वो आलिंगन
जिस कारण स्त्रावित होता रहा
ऑक्सीटोसिन हार्मोन
जिसने किया कुछ ऐसा कि
जिंदगी के गुलाबी बहाव में
महसूसता रहा तुम्हारे चुंबन की तीव्रता
मदहोशियाँ, खुशनुमा पल
सब, सब
हाँ दिया तो तुमने
तभी तो सामीप्य की गुलाबी उम्मीदें
प्रेम से जलाता रहा देह
टेस्टोरोन व एस्ट्रोजोन की बढ़ती मात्रा
था पास, बेहद पास आने का कारण
सुनो
मेरे अंदर का प्रेम रसायन
बहेगा हर समय
तुम्हारे वजूद के कारण
रहेंगी चाहतें प्रेम केमेस्ट्री की
सुनो
केमेस्ट्री फ़िज़िक्स से इतर
अपने जिंदगी के मैथेमेटिक्स में
मेरी उपस्थिति के शून्य को
आंकना, स्वयं को दस गुना बना कर
समझी न !!
~मुकेश~
(याद रहे आज हिन्दी ब्लॉग दिवस है )

Monday, June 29, 2020

कोरोना का दर्द


इन दिनों
भरा पूरा कमरा है मेरा
है जिसमें 8-10 लोग
चिन्हित करके बताउं तो...
हैं चार दीवारें
है ऊपर छत
तीन पर घूम रहे पंखे के साथ
है 'गो कोरोना' के रिवीयू के साथ
चिल्लाते एंकर वाला टीवी भी
साथ है बदलते ऑप्शन देने वाला रिमोट
हैं पढ़े जाने के उम्मीद के साथ रखी कुछ किताबें
कुछ रेसिपीज जो करने हैं ट्राय
निहारता मनीप्लांट का पौधा, जेड की हरी पत्तियां
बेस्ट फ्रेंड सा मोबाइल
और, और
मैं भी तो हूँ न
अकेलापन फील करता हुआ
आइसोलेट ।
क्वारेंनटाईन की इन खूबसूरत वजहों के साथ
कह पाता हूँ
कितने कमीने निठल्ले हैं
ये सफर करते राजमार्ग पर
मजदूर
हमें मरवा कर ही दम लेंगे ।
....है न!!!
~मुकेश~


Saturday, June 13, 2020

बदलते रंग



मृत्यु कभी कठिन नहीं होती
होती है कठिनतम वो सोच
कि कहीं मर गया तो ?
इस 'तो' में समाहित है न, कितना दर्द।
महसूस कर पाया पिछले सप्ताह।

हमने सुना है, कोई, कभी
मरा था, सामान्य बुखार से ही
पर वो मरा भी तो निश्चिंतता के साथ
क्योंकि उसे था विश्वास 
अंतिम पलों तक कि
बुखार तो बस परेशान ही करेगा
पर, मृत्यु आई चुपके से, उसका वरण करने
जाना कहाँ रुक पाया है कभी

अब बात करता हूँ मुद्दे की
आखिर एक सामान्य व्यक्ति 
मुद्दे से इतर भटक के जाए क्यों कहीं
पिछले शनिच्चर की बात है
खूब कोशिश रहती है इन दिनों
इस कठिनतम दौर में
रहे कोशिश बचाव की 
मास्क की, हैंड वाश की, सोशल डिस्टेंसिंग की
यहां तक कि सेल्फ एसेसमेंट और
'आरोग्य सेतु' एप के स्टेटस पर भी
रखी जाती है नजर।

हां तो इस बीते शनिच्चर ने रंग दिखाया
आरोग्य के हरे रंग के स्टेटस ने 
परिवर्तित हो कर भूरे रंग में
तरेरते हुए आंख बस इतना बताया कि
"आपके संक्रमण का जोखिम उच्च है"
आप कोरोना संक्रमित के जद में आये
पिछले दिनों।

एप्प के बदलते रंग के साथ
बदलता चला गया चेहरे का रंग
गुलाबी, लाल और नीला 
पहले मुस्कुराया, बेवकूफ कहीं का
फिर विस्मय के साथ सोचते हुए
हुआ चेहरा रक्तिम
कि कब कैसे क्यों कोई ऐसे पास आया
और फिर नीला हुआ माथा
उफ, अब कैसे, क्या करूँ
कितने प्रश्नों को समेटे रखते हैं हम

मुस्कुराहट उड़ी
उड़ गई नींद
मनोवैज्ञानिक तनाव को समेटे
कभी मुस्कुराए कभी आभासी रूप से
धुएं में उड़ाई परेशानी।
पर धड़कनों ने बताया अभी मरे नहीं
जीते रहो... दर्द को समेटे हुए।

ख़ुश भी हुए, बेशक थी हंसी खोखली
जब किसी ने कहा
ये ऐप है झूठा
कैसे बताएगा संक्रमण, सोचो जरा।
तब तब, बस कह पाए
कि तुम्हारे मुंह में घी शक्कर।
लेकिन कहाँ उतार पाए
डर का केंचुल।

हल्की खराश तक ने किया और परेशान
घण्टे दो घण्टे में
थर्मामीटर से मापते रहे तापमान
बेशक खुद में महसूसते रहे ताप
पर नहीं विस्तार पाता था पारा
चैन और बेचैनी से गुंथी रस्सी से
सी-सॉ करते 
होते रहे हलकान।

एक ऑफिस मित्र ने दी सलाह
बता कर रखो अपनी 
वो वसीयत, जिसमें है रजिस्टर्ड
ढेरों स्नेह और मंगलकामनाओं की थाती।
रह कर कमरे में आइसोलेट
जीते रहे, कुछ ऑक्सीजन
और मर जाने के बाद की कल्पनाओं को
एक मित्र ने आईक्यू आजमाया फिर बताया
संक्रमण का असर होता है
छठवें दिन।

समय बीता
हर नए दिन में नजर ठहरती 
एप के रंग पर
पर, उसने तो जैसे कह दिया
मेरे वाला ब्राउन, है सबसे बेस्ट।
उफ सपने भी हो गए
धूल-धूसरित भूरे, बेशक थी चाहत
हरियाली की।

सप्ताह बीता ऐसा जैसे बीता एक जन्म 
फिर वही, खुली नींद तो
सबसे पहले मन ने कहा, देखूं आरोग्य स्टेटस
पर एकाएक हुई गले में जलन
और सिहर गया पूरा बदन
आज तो असर ले ही आया कोरोना
उफ सवेरे सवेरे गर्म पानी का किया सेवन

चिंता की धनक तैर रही थी माथे पर
क्या करूँ, क्या न करूं 
करते करते, चाहते न चाहते
खोल चुका था आरोग्य एप
इस्स, हरियर रंग की हुई फुहार
और बस .....

जिंदगी का मनोविज्ञान ऐसा
कि रंगों के परिवर्तन मात्र ने भर दी जिंदगी
सांसे हो गयी स्थिर
मन हो गया सतरंगी ....!

~मुकेश~


Tuesday, June 2, 2020

लॉकडाउन व सरकारी कर्मचारी



लॉकडाउन के बाद से,
रहना था सबको आइसोलेशन में
पर, कर्फ़्यू पास के साथ,
हम डरे हुए सरकारी कर्मचारी
'कामचोरी' के तमगे के साथ
करीबन हर दिन पहुंचते है
ऑफिस डेस्क के पास,
ये तमगा हमें हासिल किए वर्षो हुआ
बेशक हर दिन मेहनत करते हुए
लाख दलीलें देकर भी
छिपा तक नहीं पाये
ये खास तमगा

इन दिनों
ऑफिस मेन गेट पर
थर्मल चेकिंग के दौरान भी
नहीं रहता हमें चैन
पूछ ही लेते हैं हर दिन
कितना है मेरा ताप
मुसकुराते हुए कहता है सिक्यूरिटी
अरे, नहीं मरते सरकारी कर्मचारी
बस जिये जाओ सर

सेनीटाइजर से भीगी
थरथराती उँगलियों में थामे कलम
कस के बांधे मास्क के नीचे से
धौंकनी सी लेते हुए सांस
बेवजह माउस और की बोर्ड को सेनीटाइज्ड कर
सरकारी फाइलों के निबटान के साथ
हर समय जल्दी घर लौटने के फिक्र के साथ
देर तलक बैठकर
फिक्र को थामे, इंतजार करते हैं
हर दिन लिए जाने वाले निर्णयों का
नहीं कह पाते कि
हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया !

बेशक ऑफिस तक पहुंच पाने में भी
होती है कठिनाइयां
पर, हम डरे हुए लोगों को झेलना होता है
कुछ न कुछ, या सब कुछ
फिर भी तमगा कामचोरी का
रहेगा बदस्तूर।
है जिंदगी आसान या है कठिन
ये तो बस कहने की बात है

याद होगा
बेशक कुछ सौ रुपए की होती थी मासिक बढ़त
महंगाई भत्ते के रूप मे
पर समाचार पत्र
किसी पार्क मे लेटे हुए कर्मचारी के साथ
'हजारो करोड़ के चपत सरकारी मेहमानों पर'
शीर्षक के साथ
करता था हाई लाइट,
आज महरूम हुए इनसे भी
क्योंकि देश के साथ दिखना है हमें भी
वो और बात है कि
हम विपणन मे थोड़े कच्चे
हमारी तस्वीरेँ वायरल नहीं होती
बस तनख्वाह ऊपर ऊपर कट जाती है

अंत सिर्फ इतना कह कर खत्म करूंगा
कि बेशक मत मानो
पर सरकारी तंत्र के हम कर्मचारी भी
होते हैं मेहनती
होते हैं संवेदनशील
और मरते भी हम ही हैं
देखो न,
फिर भी नहीं माने जाते हम वारीयर्स
हम निक्कमे कामचोर सरकारी कर्मचारी !

... है न !!!

~मुकेश~

Friday, May 29, 2020

डर



डर
कोरोना नहीं होता
पर
कोरोना
होती है वजह
मरने की
मरने से
डर तो लगता
ही है न
हां,
भूख भी
मरने की
वजह हो सकती है
भूखे लोग
डरे रहते हैं कि
मर न जाएं
डरे लोग
दुबके हैं
पर भूख और डर की समग्रता
करवा रही है
सफर
कोरोना पीड़ित
मर ही जायेंगे क्या?
शायद नहीं
पर
भूख पक्का
मारती है
काश
इतने अन्योन्याश्रय सम्बन्ध
नहीं हुआ करते
काश
कोरोना भी नहीं होता
काश
भूख भी सफर नहीं करता
कितनी बेबसी
कितनी लाचारी
मौत अपना प्रभाव
छोड़ेगी ही
चाहे वो भूख की हो
या हो किसी अदृश्य वायरस की
जहां 'काश' की
गुंजाइश तक नहीं
है तो सिर्फ अंतहीन प्रतीक्षा
और करुणा से भीगी प्रार्थना
जिंदगी
है अभी मुसीबत भरी आपदा
है 'काश' का पुलिंदा
....है न!!!
~मुकेश~

Monday, May 18, 2020

समर्पित कविता



क्या लिखी जा सकती है
कविता
जो हो तुम्हे समर्पित
जिसके शब्द शब्द में
तुमसे जुड़ा हर एहसास हो समाहित

जैसे, बहती नदी सा
कलकल करता बहाव
और दूर तलक फैली हरियाली
अंकुरण व प्रस्फुटन की वजह से
दे रही थी
सुकून भरी संतुष्टि

पर वहीं
समुद्र व उसका जल विस्तार
बताता है न
सुकून से परे
जिंदगी का फैलाव,
ज्वारभाटा की सहनशक्ति सहित
जैसे मस्तिष्क के भीतर
असंख्य नसों में
तरंगित हो बह रहा हो रुधिर ।
समुद्र की लहरों के एहसास सी तुम
और, तट से अपलक निहारता मैं ।

बसन्त के पहले की
सिहराती ठंडी पछुआ बयार
और फिर आ जाना पतझड़ का
मन तो कह ही उठता है न
उर्वर शक्ति हो चुकी है
बेहद कम
पर, रेगिस्तान में
जलते तलवों के साथ
बढ़ते चले जातें हैं दूर तलक
होता है दर्द तो
महसूसता हूँ मृग मरीचिका सी तुम को
और फिर आ ही जाता है
खिले फूलों की क्यारियों से सजा बसंत

जिंदगी देती है दर्द
ये समझना कुछ नया तो नहीं
पर ये भी तो मानो
कि, तुम्हारी चमक
जैसे पूनम के चाँद को देख कर
लगी हो, स्नेहसिक्त ठंडी छाया
और फिर
बंद आँखों के साथ
बालों में फेर रही हो तुम उंगुलियां !

सुनो ! नींद आ रही है !
कभी कभी जल्दी सोना भी चाहिए

~मुकेश~