सुनो
सुन भी रही हो
सुनोगी भी
उफ़ सुनो न यार !
मैंने अपने जिंदगी के कैनवास पर
नोकदार डबल-एच पेंसिल से
खिंचा था, सिर्फ एक ही स्कैच
थी बहुत हल्की सी आभासी स्कैच
फिर मेरी दुनिया में तुम आ गयी
तुमने कोशिश की रंग भरने की
शुरूआती दिनों में, स्कैच के आउट लाइन पर
तुम्हारे भरे रंग, नहीं जंच रहे थे
पर जैसे जैसे, बीते दिन, बीती जिंदगी
ब्रश चला, रंग भरते चले गए, सुनहले
और, फिर, वो स्कैच, उसमे दिखने लगा
तुम्हारा अक्स !
बहुत बार, बदरंग सी लगी कैनवास
लगा, नहीं बेहतरीन बन पायी पेंटिंग
न तो कोई शउर, न ही कोई नजाकत
फिर,
मेरे अन्दर के पुरुष चित्रकार का विचलित मन
बनाऊं कुछ दूसरा, फिर से करूँ कुछ अलग कोशिश
पर मिली निराशा,
या तो पेंसिल की ग्रेफाईट टूट गयी
या जिंदगी का कैनवास ही मुड़-तुड गया !
अब अंततः, मुझे वही स्कैच
जो बनाई थी, पहली और अंतिम बार
मेरी लगती है सबसे बेहतरीन व सर्वोत्तम कलाकृति
अनमोल !
सुन रही हो न
अतिम बार कह रहा हूँ
गाँठ बाँध कर याद रखना
किसी ने कहा भी,
चित्रकार
जिंदगी में सर्वोत्तम कलाकृति एक बार ही गढ़ता है
मोनालिसा हर दिन नहीं गढ़ी जाती न !
~मुकेश~