जिंदगी की राहें

जिंदगी की राहें

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Sunday, April 27, 2014

इतवार


छह व्यस्त दिन गुजारने के बाद
आ ही गया इतवार
सोचा, खूब आराम करूंगा,
पूरे दिन सो जाऊंगा
करूंगा, खुद को रेजुविनेट !!
पर नींद या ख्वाब
कभी आते हैं बुलाने पर?
भटक रहा हूँ
जबरदस्ती के बंद पलकों के साथ
ढूंढ रहा हूँ स्वयं को
उपस्थिति व अनुपस्थिति के बीच
टंगी दीवाल घड़ी के पेंडुलम की तरह
एक आवर्त में
खोजता हुआ सारांश
न जाने किस विस्तार का
सिलसिला फिल्म के अमिताभ की तरह
तुम होते तो ऐसा होता
तुम होते तो वैसा होता
मेरी कुंद पड़ी सोच भी
बिस्तर पर मुर्दे की तरह लेटे
मेरी ही शिथिल पड़ी दोनों बाँहों के बीच
कसमसाती हुई कर रही मुलाक़ात
आखिर इतबार की सुबह जो है ......
छोड़ो !
बहुत हुआ खुद को ढूँढना उंढना
ऐंवें, सुकून की चाहत
मसनद पर मुँह छिपा कर
शुतुरमुर्ग जैसी फीलिंग की साथ
चलो !
व्यस्त होना ही बेहतर
हर दिन के दिनचर्या मे ही
मिलेगा सुकून का विस्तृत आकाश
अपना आकाश !
~मुकेश~

Sunday, April 20, 2014

हसरतें



थी हसरतें
इस नादान दिल को
रख दूँ रेहन आपके पास !

काश! ये पागल दिल
कुछ पलों के लिए ही सही
धड़कता आपके ज़ेहन में

ये शख्स
कर देता जिंदगी आपके नाम
पल-पल.. छिन-छिन...
हो जाते आप पर क़ुर्बान

जिंदगी का हर क़तरा
प्यार.. दिल.. एहसास
होता आपका ही कर्ज़दार

सूद मे देनी होती मुझे
अपनी धड़कती साँसे
सिर्फ आपके ही नाम

होती चंद आहें भी साथ
मेरे ख़्याल.. मेरे जज़्बात..
मेरा वजूद.. मेरी नज़्म के साथ

हो जाते क़ैद
आपके दिल के
ताले लगे गिरवी घर में

उफ़्फ़!! मेरे आका..
मैं होता आपका गुलाम..
आपका गुलफ़ाम..

मेरी खामोश लबों
को दे दो न
अपनी मुस्कान

एक बार तो कहो
“आमीन” !!
_______________
प्यार व्यापार सा :)


Wednesday, April 16, 2014

आवाज


कभी सुना
आवाजें मर गई ?
आवाज तो,
सन्नाटे को चीरती है
बहते मौन हवाओं के बीच
हमिंग बर्ड की तरह..
आवर्ती गति के साथ आगे बढ़ती है
सन्नन्नन्न की गूँजती आवाज़ !!
.
सुनो!
अगर मेरे जाने के बाद
कभी भी
सुनना चाहो मेरी आवाज
मेरी स्मृतियों की खनखनाहट से
तो, लगा देना अपनी कान
फिर उस गुड-गुड करते शोर को
ब्रेल लिपि सी कुछ लिपिबद्ध कर के
अनुभव करने की करना कोशिश
देखना..
मेरी आवाज और मैं
मिलेंगे, बहुत पास ही
बस महसूस करना
और उन पलों में एक बार फिर
जी लेना मुझे...
~मुकेश~



Monday, April 14, 2014

मनीप्लांट



मनी प्लांट की लताएँ
हरी भरी होकर बढ़ गई थी
उली पड़ रही थी गमले से बाहर
तोड़ रही थी सीमाएं

शायद पौधा अपने सपनों मे मस्त था
चमचमाए हरे रंगे में लचक रहा था
ढूंढ रहा था उसका लचीला तना
आगे बढ़ने का कोई जुगाड़
मिल जाये कोई अवलंब तो ऊपर उठ जाए
या मिल जाए कोई दीवार तो उस पर छा जाए

पर तभी मैंने हाथ में कटर लेकर
छांट दी उसकी तरुणाई
गिर पड़ी कुछ लंबी लताएँ
जमीन पर, निढाल होकर
ऐसे लगा मानों, हरा रक्त बह रहा हो
कटी लताएँ, थी थोड़ी उदास
परंतु थी तैयार, अस्तित्व विस्तार के लिए
अपने हिस्से की नई जमीन पाने के लिए
जीवनी शक्ति का हरा रंग वो ही था शायद

गमले की शेष मनी प्लांट
थे उद्धत अशेष होने के लिए
सही ही तो है, जिंदगी जीने की जिजीविषा

आखिर जीना इतना कठिन भी नहीं ......।
.. तमसो मा ज्योतिर्गमय ।।

~मुकेश~




Monday, April 7, 2014

मेरा घर



की रे छौरा !! अब अयलिंह ??”

(क्या रे, अब आए तुम?)

मेरे घर की बूढ़ी आवाज कौंधी

जैसे ही दाखिल हुआ, पुराने घर में

गाँव की सौंधी मिट्टी, उड़ती धूल

बड़ा सा कमरा, पुराने किवाड़

ठीक बीच में, बड़ा सा पुराना पलंग

सब शायद कर रहे थे इंतज़ार

लगा, सब एक साथ ठठा कर हंस पड़े, भींगी आंखो से

मुककु !! आए न तुम ! इंतज़ार था तुम्हारा !!

खुशियों से आंखे छलकती ही है

अंगना, बीच में बड़ा सा तुलसी चौरा (पिंडा)

जो देती थी, बचने का मौका, मैया के मार से
 
वो भी मुसकायी

भंसा घर (किचन) में, चूल्हे के धुएँ से

काली पड़ चुकी दीवारें

जिसने देखा था मुझे व दूध रोटी की कटोरी

छमक कर हो गई सतरंगी

कमरे के सामने का ओसरा, वहाँ लगी चौकी

यहाँ तक की घर के पीछे की बाड़ी

बारी में झाड व लहराती तरकारी

अमरूद, नींबू, नीम, खजूर के वो सारे पेड़

चहकते हुए खिलखिलाए

लगा, जैसे, वैसे ही चिल्लाये

जैसे खेलते थे बुढ़िया कबड्डी

और होता था मासूम कोलाहल !!


आखिर एक आम व्यक्ति भी

होता है खास, जब होता है घर में

खुद-ब-खुद कर रहा था अनुभव

नम हो रही थी आँखें, खिल रही थी स्मृतियाँ

मैंने भी मंद मंद मुसकाते हुए

इन बहुत अपने निर्जीव/सजीव से कहा

कईसन हो ?? :) 


Thursday, April 3, 2014

छोटका पप्पा

(मेरे छोटे पापा, छोटी माँ और मेरे बेटे और भाई के बेटी के साथ)

छोटका पप्पा !

है न प्यारा सा सम्बोधन,

दिल से बहुत करीब,

बचपन की यादों से जुड़ा

एक महत्वपूर्ण हिस्सा !!


पापा से ज्यादा डर था,

पर प्यार भी पाते थे पापा से ज्यादा,

साइकिल के डंडे पर बैठकर,

पूरे शहर के सफर में हम होते थे  हमसफर,

उफ! कितना समझते-समझाते हमें,

लगता, कितना उपदेश देते !

खूब पढ़ो! खूब खेलो ! खूब खाओ !!

और हम,

हूँ हाँ ! के साथ उनकी बातों को उड़ाते रहते

पढ़ाई के लिए डांट का होता अजीब सा डर,

तभी तो, सामने रख कर विज्ञान/गणित की किताब

हवा हूँ, हवा मैं, बसंती हवा हूँ” ....

जैसी बावली सी कविता चिल्लाने लगते और

उनके ओझल होते ही खिलखिला उठते,

दूर आटा गूँथती छोटी माँ नहीं रह पाती चुप,

मुस्कुरा ही देती ...


था मुझे दिल से संबन्धित रोग

घर में खुसफुसाहट बराबर चलती

चक्कर लगता मेरा डाक्टर के क्लीनिक पर,

मैं साइकिल के डंडे पर सवार और

छोटका पप्पाथे न मेरे साथ

बहुतों बार देखी थी मैंने उनके माथे पर चमकती पसीने की बूंद पर,

धीरज रखो सब ठीक, होगा

यही, आवाज सुनी थी उनसे !



मेहनत और चाहत

ये दो शब्द कैसे होते हैं

अब समझा हूँ उनसे

बेशक पारिवारिक उलझन व दूरियाँ

है वो वजह जो हैं हम दूर

परछोटका पप्पा दिल के बहुत अंदर बसते हो तुम” !!



Tuesday, April 1, 2014

हार्ड बाउंड डायरी

काश एक पूरी मानव जिंदगी को
देख सकें हार्ड बाउंड डायरी में समेट कर
अधिकतर पन्नें होंगे ऐसे
रूटीन कार्यों से भरें हो जैसे
जैसे समय से खाया-पीया
थोड़ी बहुत जरूरत के लायक
निगल ली साँसे, और सो गए
फिर औंधे मुंह ...
मतलब पन्ने बेशक पलट गए
पर न बदली ये जिंदगी
कुछ पन्नें रहें होंगे कोरे
आखिर कुछ दर्द, कुछ कठिनाइयाँ
शब्दों में कहाँ बंध पाते हैं
किसी किसी पन्नें पर
होगी लिखावट बेतरतीब, जल्दबाज़ी की
क्योंकि जिंदगी में कई दिन होते हैं ऐसे
जिसमें न मिलता है सुकून, न होता है दर्द
पर पूरे दिन भागते हैं जैसे तैसे
कुछ खास पन्नें, थे स्टार-मार्क किए
जैसे कुछ तो ऐसा किया, जो था अहम
दिल से जुड़ा, जिंदगी से जुड़ा
और हाँ, दो-चार पन्ने में लगे थे फ्लेप
आखिर दो दिलों का मिलना
जिंदगी में नए रिश्तों का गढ़ना
नए अहसासों का जन्म लेना आदि
जैसे महत्वपूर्ण अद्वितीय सहेजे हुए पल
खूबसूरती से .....
पर अंतिम पन्ना !! उफ़्फ़ !!
था कोने से फटा
आखिर मृत्यु के लिए
यही तो है एक अकस्मात सूचना....
मानव जीवन की जिंदगी
थी हार्ड बाउंड डायरी में उकेरीत .........!!