Monday, December 31, 2012
शुभकामनायें.....
Saturday, December 29, 2012
वो जीना चाहती थी
वो जीना चाहती थी
वो खुशहाल जिंदगी चाहती थी
अम्मा-बाबा के सपने को पूरा करना चाहती थी ...........
अम्मा-बाबा ने साथ भी दिया
एक छोटे से शहर से डर-डर कर ही सही
पर भेजा था उसे इस मानव जंगल में
वो भी उनके अरमानो को पंख लगाने हेतु
फिजियोथेरपी की पढाई में अव्वल
आ करा आगे बढ़ना चाहती थी
वो जीना चाहती थी ......
वो जीते हुए पढना और बढ़ना चाहती थी
वो नभ को छूना चाहती थी
वो सिनेमा हाल से ही तो आयी थी उस समय
जब उसने परदे से मन में उतारा था सतरंगी सपना ....
वो खुश थी उस रात,
जब घर पहुँचने की जल्दी में चढ़ गए थी
सफ़ेद सुर्ख पब्लिक बस पर
वो तो बस जीना चाहती थी ....
उस सुर्ख सफ़ेद बस के अन्दर
एक जीने की चाह रखने वाली तरूणी के साथ
छह दरिंदो ने दिखाई हैवानियत
उसने झेला दरिंदगी का क्रूरतम तांडव
इंसानियत हुई शर्मसार
फिर भी, हर दर्द को सहते हुए पहुंची वो अस्पताल
तो उसने माँ को सिर्फ इतना कहा
माँ मैं जीना चाहती हूँ .........
तेरह दिन हो चुके थे
उस क्रूरतम दर्द के स्याह रात के बीते हुए
पर उसकी बोलती आँखे ....
जिसमे कभी माँ-बाबा-भाई का सपना बसता था
दर्द से कराहते हुए भी
उसने जीने का जज्बा नहीं छोड़ा
तीन-तीन ओपरेशन सहा,फिर भी
अस्पताल के आईसीयू से हर समय आवाज आती
वो जीना चाहती थी ...
अंततः ऊपर वाले ने ही दगा दे दिया
उस नवयुवती ने आखिर
अंतिम सांस लेकर विदा कर ही दिया ....
आखिर जिंदगी को हारना पड़ा
पर हमें याद रखना होगा
"वो जीना चाहती थी"
वो बेशक चली गयी पर,
अब भारत के हर आम नारी में उसको जीना होगा
हर भारतीय नारी को याद रखना होगा
वो जीना चाहती थी
वो तुम में जिन्दा है ...
__________________
आज सोलह दिसंबर है........!!
Sunday, December 23, 2012
-दामिनी-
"वो बेहोश थी, पर आँखों में आंसू थे"
-सफ़दरजंग अस्पताल के डाक्टर
के हवाले से आयी खबर
" मैं जीना चाहती हूँ "
- ये भी उसने ही कहा
अस्पताल के बाहर किसी ने बताया
.
क्या ये तीन कथन से भी
पर जिंदगी जीने के तमन्ना
से भरी हुई !
हो सकती है कोई रचना !!!
Friday, December 14, 2012
डीटीसी के बस की सवारी
ये डीटीसी के बस की सवारी
इससे तो थी अपनी यारी
हर सुबह कुछ किलोमीटर का सफर
कट जाता था, नहीं थी फिकर
जैसे सुबह 9 बजे का ऑफिस
11 बजे तक भी पहुँचने पर कहलाता गुड, नाइस!
तो बेशक घर से हर सुबह निकलते लेट
पर बस स्टैंड पर भी थोड़ा करते थे वेट
अरे, कुछ बालाओं को करना पड़ता था सी-ऑफ
ताकि कोई भगा न ले, न हो जाए इनका थेफ्ट
कुछ ऑटो से जाती, कुछ भरी हुई बस मे हो जाती सेट
हम आहें भरते, करते रह जाते दिस-देट
मेरी बोलती आंखे दूर से करती बाय-बाय
मन मे हुक सी होती, आखिर कब 'वी मेट'
लो जी आ ही गई हमारी भी ब्लू लाइन बस
जो एक और झुकी थी, क्योंकि थी ठसाठस
तो भी बहुत सारे यात्रीगण चढ़ रहे थे
पर, कुछ ही यात्री आगे बढ़ रहे थे
क्योंकि अधिकतर महिलाओं की सीट पर लद रहे थे
कंडक्टर से अपना पुराना दोस्ताना था
अतः सीट का जुगाड़ हर दिन उसे ही करवाना होता था
एक सज्जन ने अपने साथ बैठने को बुलाया उसको
तभी दूसरी खूबसूरत ने कहा जरा सा तो खिसको
एक लो कट नेक वाली महिला थी खड़ी
अंकलजी से रहा नहीं गया, उन्हे सीट देनी ही पड़ी
पान / तंबाकू खा कर कोई बाहर पीक फेंक रहा था
तो वहीँ स्टायलों डुड ने सिगरेट का छल्ला उड़ाया था
कोने मे बैठे उम्रदराज साहब ने शुरू कर दी बहस
यूं कि धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी भरी हुई बस
क्या चल पाएगी या गिर जाएगी सरकार
दूसरे ने पान चबाते हुए कहा
अब किसे सुननी है? हमारी क्या दरकार !
हमने भी आज फिर से याराना निभाया
बच्चू फिर आज गच्चा दे कर टिकट नहीं कटवाया
इस तरह इस बनते बिगड़ते बस के लोकतन्त्र में
हमने समय काटा, और पहुँच गए ऑफिस खेल खेल में
ये डीटीसी के बस की सवारी, इससे तो थी अपनी यारी।
~मुकेश~