जिंदगी की राहें

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Thursday, August 18, 2016

अंतर्मन के शब्द

गूगल से


हाँ, नहीं लिख पाता कवितायें, 
हाँ नहीं व्यक्त कर पाता अपनी भावनाएं 
शायद अंतस के भाव ही  मर गए या हो चुके सुसुप्त!
या फिर शब्दों की डिक्शनरी चिंदी चिंदी हो कर 
उड़ गयी आसमान में !!

तड़पते शब्द, बिलखते वाक्य 
अगर मर गए तो करना होगा इनका दाहसंस्कार 
नहीं तो बेकार में मारेंगे सडांध !!

या फिर सुसुप्त हो गए,  तो 
बन जायेंगे मृत ज्वालामुखी से 
जिसकी  क्रेटर तक ढक चुकी होगी 
होंगी, कई तरह के परतें 
स्लेश्मा, लावा पत्थर और पता नहीं क्या क्या
पर क्या वो दिन आएगा, 
जब फिर से मचेगा हाहाकार!!

दहकते शब्द और उनके धार 
बहती भावनाएं 
और फिर शब्दों की बाजीगरी दिखाती 
फूट पड़ेगा ज्वालामुखी

समेट लेगी सभी आलोचनाएँ, 
उन दर्द और दुःख को भी,  जिन्हें 
क्षण हर क्षण झेलने के बावजूद कह नहीं पाया कुछ !!

काश चुप्पे से एक शख्स की भी संवेदनाएं
बहती जलधारा के उद्वेग की तरह 
बह जाए, बहा ले जाए 
पल प्रति पल 
काश !! सम्बन्ध और संवाद की कविताओं के लिए 
शब्द मिलते रहे ................!!

कंचन पाठक के हाथो में हमिंग बर्ड 

Wednesday, August 3, 2016

अंतिम आवाज


नेशनल हाइवे न. 31
सपने में, विकास के तेज वाहन पर सवार
कुलबुला रही अजीब सी फीलिंग..
समतल बहुत चौड़े व अनंत तक लंबे
काले चारकोल के कालीन पर
हूँ बीच खड़ा ! नितांत अकेला !!

शोर कोलाहल प्रदूषण..
तेज सरपट दौड़ती गाड़ियों की आवाजाही
लगातार !!!
भयावह हो चुका यातायात !

था जड़वत, शिथिल ! स्तब्ध !
थी कहीं अंदर ये उम्मीद कि
पहुंचुंगा दूर तलक !!!

पर, उफ्फ्फ!
कहाँ समझ पाते मशीन व मशीनी लोग
एक चौड़े डनलप या एमआरऍफ़ के पहिये ने
पीस ही दिया सर !!
हाँ ये मन मस्तिष्क ही जो था खोखला ! विवेकहीन !
दूर तक घिसटता .... दिलाता याद !
दर्द-कराह के कुछ क्षणों के साथ
की जिंदगी को कभी कभी
कंचों की गोलियों सी लुढक लेने दो !

जैसे कभी एक गोली दूसरे पर पड़े
टन्न !!
चोट भले लगे दोनों को
पर एक को हार और
दूसरा विजेता !! विनर !!

भन्नाया मानस मर चुका घिसट कर
फिर भी सोच रहा
कौन सा कंचा  था
विजेता..
जिसके लिए आई थी आवाज - हुर्रे !!
या, सुषुप्त लुढ़का ! फटे दर्दविदारक सर के साथ !
अगले नव-जन्म की प्रतीक्षा में !!

जा रहा हूँ .....
पर अंतिम आवाज 'हे राम' की नही
"जीतूँगा" की !!
इन्तजार करना...........