जिंदगी की राहें

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Tuesday, June 2, 2020

लॉकडाउन व सरकारी कर्मचारी



लॉकडाउन के बाद से,
रहना था सबको आइसोलेशन में
पर, कर्फ़्यू पास के साथ,
हम डरे हुए सरकारी कर्मचारी
'कामचोरी' के तमगे के साथ
करीबन हर दिन पहुंचते है
ऑफिस डेस्क के पास,
ये तमगा हमें हासिल किए वर्षो हुआ
बेशक हर दिन मेहनत करते हुए
लाख दलीलें देकर भी
छिपा तक नहीं पाये
ये खास तमगा

इन दिनों
ऑफिस मेन गेट पर
थर्मल चेकिंग के दौरान भी
नहीं रहता हमें चैन
पूछ ही लेते हैं हर दिन
कितना है मेरा ताप
मुसकुराते हुए कहता है सिक्यूरिटी
अरे, नहीं मरते सरकारी कर्मचारी
बस जिये जाओ सर

सेनीटाइजर से भीगी
थरथराती उँगलियों में थामे कलम
कस के बांधे मास्क के नीचे से
धौंकनी सी लेते हुए सांस
बेवजह माउस और की बोर्ड को सेनीटाइज्ड कर
सरकारी फाइलों के निबटान के साथ
हर समय जल्दी घर लौटने के फिक्र के साथ
देर तलक बैठकर
फिक्र को थामे, इंतजार करते हैं
हर दिन लिए जाने वाले निर्णयों का
नहीं कह पाते कि
हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया !

बेशक ऑफिस तक पहुंच पाने में भी
होती है कठिनाइयां
पर, हम डरे हुए लोगों को झेलना होता है
कुछ न कुछ, या सब कुछ
फिर भी तमगा कामचोरी का
रहेगा बदस्तूर।
है जिंदगी आसान या है कठिन
ये तो बस कहने की बात है

याद होगा
बेशक कुछ सौ रुपए की होती थी मासिक बढ़त
महंगाई भत्ते के रूप मे
पर समाचार पत्र
किसी पार्क मे लेटे हुए कर्मचारी के साथ
'हजारो करोड़ के चपत सरकारी मेहमानों पर'
शीर्षक के साथ
करता था हाई लाइट,
आज महरूम हुए इनसे भी
क्योंकि देश के साथ दिखना है हमें भी
वो और बात है कि
हम विपणन मे थोड़े कच्चे
हमारी तस्वीरेँ वायरल नहीं होती
बस तनख्वाह ऊपर ऊपर कट जाती है

अंत सिर्फ इतना कह कर खत्म करूंगा
कि बेशक मत मानो
पर सरकारी तंत्र के हम कर्मचारी भी
होते हैं मेहनती
होते हैं संवेदनशील
और मरते भी हम ही हैं
देखो न,
फिर भी नहीं माने जाते हम वारीयर्स
हम निक्कमे कामचोर सरकारी कर्मचारी !

... है न !!!

~मुकेश~

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर और समसामयिक रचना।