प्रेम कविता लिखने की शर्त लगी थी
इस तंज के साथ कि
आज तक मुझ पर नहीं रच पाया कोई
प्रेम कविता !
बिन कहे कुछ
सोचा कि
लिखूं तो क्या लिखूं
होंठ लिखूं या लिखूं गुलाब की गुलाबी पंखुडियां
जो कभी हुआ करते थे प्रेम पत्र के साथ
रुमानियत भरने के लिए
हुआ करता था जो जरूरी
या फिर लिखने से पहले
ताकूं सुरमई आँखों में
हाँ, नजरों में अटकना ही तो है शायद
प्रेम के पहले पग पर ठिठकना
अगर अटका तो खोया
फिसला तो, हमें पता है
कह ही दोगी
ओये लड़के उतनी दूर तक नहीं !
खैर, रहने दी कविता
कर ली अपनी आँखे बंद
और फील करने लगा मुस्कराहट
तभी तो फैले बाहों से इंद्रधनुषी आसमान के साथ
महसूसने लगा तुम्हारी आहट
थे मेरे हाथो में तुम्हारे हाथ
थी स्पर्श की उष्णता
शायद कहीं प्रेम कविता की मांग में था
छिपा हुआ विस्मयकारी प्रेम भी तो
सोचा लिखूं तुम्हारे भरे हुए कंधे
और लिखूं तुम्हारी आवाज सुरीली
तभी आवाज सोचते ही फना होने लगी रूह
धधकने लगा अलिंद और निलय के बीच
बहने वाला रुधिर
टूटती नींद के साथ खिलखिलाते सपने भी तो
तकिये के अगल बगल से चिढाते हुए कह उठे
कवि तुम प्रेम में तो नहीं हो उसके
कब आ चुकी थी निद्रा
कब नींद में भी बहकने लगा था मन
पता चला तब,
जब तकिये में दबाये चेहरे को
करने लगा देह की यात्रा
देह से देह तक
कमनीयता से नज़ाक़त तक
मन से मन तक पहुँचने से पहले
पर, कुछ अजब गजब सोच भी
होती है प्रेम में निहित
किसी ने बताया था कभी
फिर जैसे चुप्पी होती है वाचाल
वैसे ही सोया हुआ जिस्म दौड़ता है अत्यधिक
चलो हो चुकी है अब भोर
फिर कभी लिखूंगा तुम पर
प्रेम और प्रेम कविता
आज तो बस जान लो
कवि के मन की बात कि
खिलखिलाते हुए लोग होते हैं खूबसूरत !
हाँ फिर से कह रहा हूँ
मुझे प्रेम कविता लिखते रहनी हैं
हर नए दिन में नए नए
झंकार था टंकार के साथ !
समझी ना !
~मुकेश~