जिंदगी की राहें

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Monday, June 29, 2020

कोरोना का दर्द


इन दिनों
भरा पूरा कमरा है मेरा
है जिसमें 8-10 लोग
चिन्हित करके बताउं तो...
हैं चार दीवारें
है ऊपर छत
तीन पर घूम रहे पंखे के साथ
है 'गो कोरोना' के रिवीयू के साथ
चिल्लाते एंकर वाला टीवी भी
साथ है बदलते ऑप्शन देने वाला रिमोट
हैं पढ़े जाने के उम्मीद के साथ रखी कुछ किताबें
कुछ रेसिपीज जो करने हैं ट्राय
निहारता मनीप्लांट का पौधा, जेड की हरी पत्तियां
बेस्ट फ्रेंड सा मोबाइल
और, और
मैं भी तो हूँ न
अकेलापन फील करता हुआ
आइसोलेट ।
क्वारेंनटाईन की इन खूबसूरत वजहों के साथ
कह पाता हूँ
कितने कमीने निठल्ले हैं
ये सफर करते राजमार्ग पर
मजदूर
हमें मरवा कर ही दम लेंगे ।
....है न!!!
~मुकेश~


Saturday, June 13, 2020

बदलते रंग



मृत्यु कभी कठिन नहीं होती
होती है कठिनतम वो सोच
कि कहीं मर गया तो ?
इस 'तो' में समाहित है न, कितना दर्द।
महसूस कर पाया पिछले सप्ताह।

हमने सुना है, कोई, कभी
मरा था, सामान्य बुखार से ही
पर वो मरा भी तो निश्चिंतता के साथ
क्योंकि उसे था विश्वास 
अंतिम पलों तक कि
बुखार तो बस परेशान ही करेगा
पर, मृत्यु आई चुपके से, उसका वरण करने
जाना कहाँ रुक पाया है कभी

अब बात करता हूँ मुद्दे की
आखिर एक सामान्य व्यक्ति 
मुद्दे से इतर भटक के जाए क्यों कहीं
पिछले शनिच्चर की बात है
खूब कोशिश रहती है इन दिनों
इस कठिनतम दौर में
रहे कोशिश बचाव की 
मास्क की, हैंड वाश की, सोशल डिस्टेंसिंग की
यहां तक कि सेल्फ एसेसमेंट और
'आरोग्य सेतु' एप के स्टेटस पर भी
रखी जाती है नजर।

हां तो इस बीते शनिच्चर ने रंग दिखाया
आरोग्य के हरे रंग के स्टेटस ने 
परिवर्तित हो कर भूरे रंग में
तरेरते हुए आंख बस इतना बताया कि
"आपके संक्रमण का जोखिम उच्च है"
आप कोरोना संक्रमित के जद में आये
पिछले दिनों।

एप्प के बदलते रंग के साथ
बदलता चला गया चेहरे का रंग
गुलाबी, लाल और नीला 
पहले मुस्कुराया, बेवकूफ कहीं का
फिर विस्मय के साथ सोचते हुए
हुआ चेहरा रक्तिम
कि कब कैसे क्यों कोई ऐसे पास आया
और फिर नीला हुआ माथा
उफ, अब कैसे, क्या करूँ
कितने प्रश्नों को समेटे रखते हैं हम

मुस्कुराहट उड़ी
उड़ गई नींद
मनोवैज्ञानिक तनाव को समेटे
कभी मुस्कुराए कभी आभासी रूप से
धुएं में उड़ाई परेशानी।
पर धड़कनों ने बताया अभी मरे नहीं
जीते रहो... दर्द को समेटे हुए।

ख़ुश भी हुए, बेशक थी हंसी खोखली
जब किसी ने कहा
ये ऐप है झूठा
कैसे बताएगा संक्रमण, सोचो जरा।
तब तब, बस कह पाए
कि तुम्हारे मुंह में घी शक्कर।
लेकिन कहाँ उतार पाए
डर का केंचुल।

हल्की खराश तक ने किया और परेशान
घण्टे दो घण्टे में
थर्मामीटर से मापते रहे तापमान
बेशक खुद में महसूसते रहे ताप
पर नहीं विस्तार पाता था पारा
चैन और बेचैनी से गुंथी रस्सी से
सी-सॉ करते 
होते रहे हलकान।

एक ऑफिस मित्र ने दी सलाह
बता कर रखो अपनी 
वो वसीयत, जिसमें है रजिस्टर्ड
ढेरों स्नेह और मंगलकामनाओं की थाती।
रह कर कमरे में आइसोलेट
जीते रहे, कुछ ऑक्सीजन
और मर जाने के बाद की कल्पनाओं को
एक मित्र ने आईक्यू आजमाया फिर बताया
संक्रमण का असर होता है
छठवें दिन।

समय बीता
हर नए दिन में नजर ठहरती 
एप के रंग पर
पर, उसने तो जैसे कह दिया
मेरे वाला ब्राउन, है सबसे बेस्ट।
उफ सपने भी हो गए
धूल-धूसरित भूरे, बेशक थी चाहत
हरियाली की।

सप्ताह बीता ऐसा जैसे बीता एक जन्म 
फिर वही, खुली नींद तो
सबसे पहले मन ने कहा, देखूं आरोग्य स्टेटस
पर एकाएक हुई गले में जलन
और सिहर गया पूरा बदन
आज तो असर ले ही आया कोरोना
उफ सवेरे सवेरे गर्म पानी का किया सेवन

चिंता की धनक तैर रही थी माथे पर
क्या करूँ, क्या न करूं 
करते करते, चाहते न चाहते
खोल चुका था आरोग्य एप
इस्स, हरियर रंग की हुई फुहार
और बस .....

जिंदगी का मनोविज्ञान ऐसा
कि रंगों के परिवर्तन मात्र ने भर दी जिंदगी
सांसे हो गयी स्थिर
मन हो गया सतरंगी ....!

~मुकेश~


Tuesday, June 2, 2020

लॉकडाउन व सरकारी कर्मचारी



लॉकडाउन के बाद से,
रहना था सबको आइसोलेशन में
पर, कर्फ़्यू पास के साथ,
हम डरे हुए सरकारी कर्मचारी
'कामचोरी' के तमगे के साथ
करीबन हर दिन पहुंचते है
ऑफिस डेस्क के पास,
ये तमगा हमें हासिल किए वर्षो हुआ
बेशक हर दिन मेहनत करते हुए
लाख दलीलें देकर भी
छिपा तक नहीं पाये
ये खास तमगा

इन दिनों
ऑफिस मेन गेट पर
थर्मल चेकिंग के दौरान भी
नहीं रहता हमें चैन
पूछ ही लेते हैं हर दिन
कितना है मेरा ताप
मुसकुराते हुए कहता है सिक्यूरिटी
अरे, नहीं मरते सरकारी कर्मचारी
बस जिये जाओ सर

सेनीटाइजर से भीगी
थरथराती उँगलियों में थामे कलम
कस के बांधे मास्क के नीचे से
धौंकनी सी लेते हुए सांस
बेवजह माउस और की बोर्ड को सेनीटाइज्ड कर
सरकारी फाइलों के निबटान के साथ
हर समय जल्दी घर लौटने के फिक्र के साथ
देर तलक बैठकर
फिक्र को थामे, इंतजार करते हैं
हर दिन लिए जाने वाले निर्णयों का
नहीं कह पाते कि
हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया !

बेशक ऑफिस तक पहुंच पाने में भी
होती है कठिनाइयां
पर, हम डरे हुए लोगों को झेलना होता है
कुछ न कुछ, या सब कुछ
फिर भी तमगा कामचोरी का
रहेगा बदस्तूर।
है जिंदगी आसान या है कठिन
ये तो बस कहने की बात है

याद होगा
बेशक कुछ सौ रुपए की होती थी मासिक बढ़त
महंगाई भत्ते के रूप मे
पर समाचार पत्र
किसी पार्क मे लेटे हुए कर्मचारी के साथ
'हजारो करोड़ के चपत सरकारी मेहमानों पर'
शीर्षक के साथ
करता था हाई लाइट,
आज महरूम हुए इनसे भी
क्योंकि देश के साथ दिखना है हमें भी
वो और बात है कि
हम विपणन मे थोड़े कच्चे
हमारी तस्वीरेँ वायरल नहीं होती
बस तनख्वाह ऊपर ऊपर कट जाती है

अंत सिर्फ इतना कह कर खत्म करूंगा
कि बेशक मत मानो
पर सरकारी तंत्र के हम कर्मचारी भी
होते हैं मेहनती
होते हैं संवेदनशील
और मरते भी हम ही हैं
देखो न,
फिर भी नहीं माने जाते हम वारीयर्स
हम निक्कमे कामचोर सरकारी कर्मचारी !

... है न !!!

~मुकेश~