जिंदगी की राहें

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Monday, July 26, 2010

तो तुम याद आती हो....


मेरे अत्यंत प्रिय और घनिष्ट मित्र "गणेश" के एक पुरानी डायरी के पन्नो से उतारी हुई..........

रात के लम्बे सफ़र में
जब में करवटें बदलता हूँ
तो तुम याद आती हो....

सुबह जब टहलने निकलता हूँ
और ठंडी हवा का कोमल स्पर्श होता है
तो तुम याद आती हो....

कॉलेज जाते समय
जब अकेला राहें नापता हूँ
तो तुम याद आती हो.......

क्लास के उस खाली समय में
जब खाली कुर्सियों के कतारों के बीच
अकेला बैठा होता हूँ
तो तुम याद आती हो....

हिंदी के पाठ्यक्रम में
जब विषय, प्रेम के गलियारे में रहता है
तो तुम याद आती हो....

साइकल से घर लौटते समय
जब उन राहों से गुजरता हूँ
जहाँ से तुम गुजरी थी
तो तुम याद आती हो....

हरित बागों में जब बैठा होता हूँ
और कोयल की कुक सुनाई पड़ती है
तो तुम याद आती हो....

और अंततः जब पुरे दिन की
भाग दौर से थक जाता हूँ
तो तुम याद आती हो....


Saturday, July 3, 2010

HONOUR KILLING



पहली बरसात की हलकी फुहार
मंद मंद बहती पवन की बयार
अंतर्मन में हो रहा था खुशियों का संचार
अलसाई दोपहर के बाद
उठ कर बैठा ही था
बच्चो ने कर दी फरमाइश
पापा! चलो न "गार्डेन"!!
मैंने भी "हाँ" कह कर
किया खुशियों का इजहार
और पहुच गए "लोधी गार्डेन!!!!

मौसम की सतरंगी मस्ती
खेल रहे थे, क्योंकि थी चुस्ती
हमने भी बनाई दो टीम
लिया प्लास्टिक का बैट  
उछलती हुई टेनिस बॉल
पर लगाया एक शौट
जो उड़ता हुआ जा पहुंचा
पेड़ के पीछे, झाड़ी  के बीच!!

नौ वर्षीय बेटा दौड़ा
पर उलटे पैरों लौटा
बडबडाया
वहां है कोई, मैंने नहीं लाता....
आखिर गया मैं
पर मैं भी लौटा बिना बॉल के
होकर स्याह!
खेल हो गया बंद
सारे समझ न पाए
हुआ क्या???

धीरे से, श्रीमती को समझाया
अरे यार! कैसे  लाऊं  बॉल
स्तिथि बड़ी है विषम
पता नहीं क्यूं ये युवा जोड़े
अपने क्षुदा  पूर्ति और काम वासना 
के  सनक को
को कहते हैं, हो गया है प्यार
पब्लिक प्लेस पर
इस तरह का दृश्य गढ़  कर
क्यूं करते हैं हमें शर्मशार

मेरे आँखों में तभी कौंधा
HONOUR KILLING जैसा शब्द
लगा ये ऐसे मुद्राओ के साथ
हो नहीं रहा इज्जत से खिलवाड़
क्या इन झाड़ियों में छिप कर
होने वाला जिस्मानी प्यार
कर नहीं रहा युवाओं के
माता-पिता की इज्जत तार-तार
क्यूं इनके आँखों की शर्म
इन्हें बना देती है बेशर्म
क्यूं? क्यूं?? क्यूं???