जिंदगी की राहें

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Friday, December 14, 2012

डीटीसी के बस की सवारी



ये डीटीसी के बस की सवारी
इससे तो थी अपनी यारी

हर सुबह कुछ किलोमीटर का सफर
कट जाता था, नहीं थी फिकर
जैसे सुबह 9 बजे का ऑफिस
11 बजे तक भी पहुँचने पर कहलाता गुड, नाइस!

तो बेशक घर से हर सुबह निकलते लेट
पर बस स्टैंड पर भी थोड़ा करते थे वेट
अरे, कुछ बालाओं को करना पड़ता था सी-ऑफ
ताकि कोई भगा न ले, न हो जाए इनका थेफ्ट
कुछ ऑटो से जाती, कुछ भरी हुई बस मे हो जाती सेट
हम आहें भरते, करते रह जाते दिस-देट
मेरी बोलती आंखे दूर से करती बाय-बाय
मन मे हुक सी होती, आखिर कब 'वी मेट'

लो जी आ ही गई हमारी भी ब्लू लाइन बस
जो एक और झुकी थी, क्योंकि थी ठसाठस
तो भी बहुत सारे यात्रीगण चढ़ रहे थे
पर, कुछ ही यात्री आगे बढ़ रहे थे
क्योंकि अधिकतर महिलाओं की सीट पर लद रहे थे
कंडक्टर से अपना पुराना दोस्ताना था
अतः सीट का जुगाड़ हर दिन उसे ही करवाना होता था

एक सज्जन ने अपने साथ बैठने को बुलाया उसको
तभी दूसरी खूबसूरत ने कहा जरा सा तो खिसको
एक लो कट नेक वाली महिला थी खड़ी
अंकलजी से रहा नहीं गया, उन्हे सीट देनी ही पड़ी
पान / तंबाकू खा कर कोई बाहर पीक फेंक रहा था
तो वहीँ स्टायलों डुड ने सिगरेट का छल्ला उड़ाया था

कोने मे बैठे उम्रदराज साहब ने शुरू कर दी बहस
यूं कि धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी भरी हुई बस
क्या चल पाएगी या गिर जाएगी सरकार
दूसरे ने पान चबाते हुए कहा
अब किसे सुननी है? हमारी क्या दरकार !

हमने भी आज फिर से याराना निभाया
बच्चू फिर आज गच्चा दे कर टिकट नहीं कटवाया
इस तरह इस बनते बिगड़ते बस के लोकतन्त्र में
हमने समय काटा, और पहुँच गए ऑफिस खेल खेल में

ये डीटीसी के बस की सवारी, इससे तो थी अपनी यारी।

~मुकेश~