जिंदगी की राहें

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Friday, February 14, 2014

मेरा शहर





कल गहरी नींद में था सोया
तो मेरे शहरने मुझे जगाया
कुनमुनाते हुए मैंने ज्यों ही
अधमुँदी आंखो से देखा
मेरा शहर ज़ोर से चिल्लाया

मरदूद! कितने गिरे इंसान हो
इंसान हो भी या पाषाण हो
........इसी शहर में रहते हो ?
फिर भी, इसी को बदनाम करते हो ?
उफ! मेरे आदरणीय शहर
अब बोल भी दो, क्यों चिल्लाते हो
क्यों इस फटेहाल को सताते हो

बद्तमीज़! तुझे याद भी है ?
जब कॉलोनी के गोल चक्कर से
तू अपने खटारे बजाज से गुजर रहा था
तो कोने वाले दरवाजे से
किसी अपने के एक्सीडेंट में गुजर जाने का दर्द
तेज विलाप में नजर आ रहा था

पर तू ! तू तो सिर्फ रुका, ठिठका
और फिर चुपचाप खिसका 
कुछ दिन पहले भी मैंने तुझे देखा था
भूख से बिलखता, एक नौ साल का बच्चा
माँ-बाप से बिछड़, तेरे पास से गुजरा था
पर तूने देखकर भी अनदेखा किया था
और, और! उस दिन तो तूने अति कर दी थी
जब सड़क पर एक मनचले ने, तेरे सामने ही

मासूम सी लड़की का दुपट्टा खींचा था
तब भी कुछ कहने से तू झिझका था
एक बार तुम्हारे सामने चलते बस में जेब कतरे ने
एक उम्रदराज की पर्स उडाई थी
पर फिर भी तुझे क्या,
अनदेखा कर सीट पर आँख झपकाई थी

ए पाषाण! तेरे जैसे के कारण ही
मैं बिलखता हूँ, रोता-चिल्लाता हूँ
पर तुम्हारे जैसे की जिंदगी ढोता हूँ
काश! तुझे देश-शहर निकाला जैसा
कोई गंभीर सजा दे दिया जाता !!

देख आज भी सिर्फ तेरी नींद खड़कायी है
तुम्हारी अंतरात्मा ही तो जगाई है
अब बस! मेरा इतना सा कहना मानना
नींद से जागते ही, अपने अंदर के इंसान को जगाना
बस इतना सा कहना मान ही लेना

मानेगा ?
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मेरा शहर हर पल परेशान करता है, क्या करूँ  खुद को बदलूँ या शहर को 

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