जिंदगी की राहें

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Saturday, August 21, 2010

बुढा वीर




सर सर चलती पछुआ हवा
अन्दर तक कांपती बूढी हड्डियाँ
ओंस से भींगी धोती
घुटनों तक लहराती होती
स्वाभिमान के मरुस्थल की आंच
जरा भी कम नहीं, थी जांवाज़!!

शरीर होने लगा था शिथिल
पर संकल्प पूर्ववत, एकदम जिंदादिल
हार, का शिकन जरा भी नहीं
दर्द, बेबसी, परेशानियाँ, हताशा!!
पर!! बूढी इच्छा शक्ति की विजय
लहरा रही थी पताका........

जवानी की आग को
सहेजा था ऐसा
की जीर्ण शीर्ण शरीर व 
आत्मा, अन्दर से बनी हुई थी वीर

तभी तो नन्हे बच्चे तीन
और उसकी माँ जो थी दीन
जो थी उसके शहीद बेटे की 
विधवा, जिसकी जिंदगी थी ग़मगीन
साथ ही, उस मरे बेटे की रोती बिलखती बुढिया माँ......
फिर पुरे कुनबे को संभाले
वो बुढा, जिसे हो रखा था "दमा"!!

बता रहा था.........
बेशक देश की रक्षा में
उसने गंवाया बेटा
लेकिन वो है सक्षम
दर्शा रहा था
अपनी देशभक्ति
क्योंकि था वो
शहीद परिवार का पोषक.........
क्योंकि वही था........अकेला

अतः अंत में देख कर
दिल ने कहा - जय हो! जय हो जवान!!
जो शहीद हुआ, हो गया देश पर कुर्बान!!
पर दिमाग कह रहा था........
जय हो! जय हो बुढा वीर...........
भगवन !!!! अगर तुम सच में हो
तो बदल दो उसकी तकदीर.........
बदल दो उसकी तकदीर..........





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