जिंदगी के कठिनतम दौर में
दर्द-दुःख जैसे झंझावातों से भरी सड़क पर
लड़ते-चलते बढ़े जा रहे थे हम!
कभी बुने थे हसीन व सुखदायी ख़्वाब
ख़्वाबों के सिकंदर थे हम
हाँ! सेल्युकस दी ग्रेट ही
खुद को समझते रहे हम !
पर ये क्या यार
हाँ, विषय कौतुहल का है
क्यों वास्तविकता की धरातल पर
जब दिखने एवं परखने की बारी आई
तो, खुद को आज के ग्रीस की धरती पर
पा रहे हैं हम!
हाँ यार!!
बस पता नही कैसे?
आम लोगों क्या मित्रों की नजरों में भी
कंगाल यूनानी बन गए हम !
कोई नही, दिन बदलेगा
फिर से ख़्वाब बुनेंगे, इतराएँगे
बिल गेट्स से किसी रईस का
लगा कर मुखौटा चेहरे पर
बंद आँखों में, स्वयं को लुभाएंगे
हार नही मानेंगे हम
ऐसे हैं हम
बेशक सबके नजरों में अजीब हैं हम !
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ग्रीस के तत्कालीन हाल पर, बस कुछ अलग पंक्ति बन गयी
8 comments:
yatharh ko shabdon me bune ho....kitna pyara likhe ho,sb din yeksaman nahi hote...din to bahurne hi hain.
sadgi bhari hai rachnayen ..pathak ko unke karib pati hai hardik badhai
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ४ का चक्कर - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-07-2015) को "कुछ नियमित लिंक और एक पोस्ट की समीक्षा" {चर्चा अंक - 2041} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अच्छी पोस्ट
सेलुकस दी ग्रेट को सलाम. सुंदर कविता.
सब दिन होत न एक समान..
सुंदर....
बहुत सुन्दर रचना
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