स्त्री हूँ
हाँ स्त्री ही हूँ
कोई अजूबा नहीं हूँ, समझे न !
क्या हुआ, मेरी मर्जी
जब चाहूँ गिराऊं बिजलियाँ
या फिर हो जाऊं मौन
मेरी जिंदगी
मेरी अपनी, स्वयं की
जैसे मेरा खुद का तराशा हुआ
पंच भुजिय प्रिज्म
कौन सा रंग, कौन सा प्रकाश
किस परावर्तन और किस अपवर्तन के साथ
किस किस वेव लेंग्थ पर
कहाँ कहाँ तक छितरे
सब कुछ मेरी मर्जी !!
मेरा चेहरा, मेरे लहराते बाल
लगाऊं एंटी एजिंग क्रीम या ब्लीच कर दूं बाल
या लगाऊं वही सफ़ेद पाउडर
या ओढ़ लूं बुरका
फिर, फिर क्या, मेरी मर्जी !
मेरा जिस्म खुद का
कितना ढकूँ, कितना उघाडू
या कितना लोक लाज से छिप जाऊं
या ढों लूँ कुछ सामाजिक मान्यताएं
मेरी मर्जी
तुम जानो, तुम्हारी नजरें
तुम पहनों घोड़े के आँखों वाला चश्मा
मैं तो बस इतराऊं, या वारी जाऊं
मेरी मर्जी !
है मेरे पास भी तुम्हारे जैसे ऑप्शन,
ये, वो, या वो दूर वाला या सारे
तुम्हे क्या !
हो ऐसा ही मेरा नजरिया!
हो मेरी चॉइस! माय चॉइस !!
पर, यहीं आकर हो जाती हूँ अलग
है एक जोड़ी अनुभूतियाँ
फिर उससे जुडी जिम्मेदारियां
बखूबी समझती हूँ
और यही वजह, सहर्ष गले लगाया
दिल दिमाग से अपनाया
आफ्टर आल माय चॉइस टाइप्स फीलिंग
है न मेरे पास भी !!
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माय चॉइस !
7 comments:
achhi kavita
achhi kavita
achhi kavita
sundar shabdon me achhe bhav diye ho....my choice.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज बृहस्रपतिवार (09-07-2015) को "माय चॉइस-सखी सी लगने लगी हो.." (चर्चा अंक-2031) (चर्चा अंक- 2031) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
उम्दा
बहुत सुन्दर रचना
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