अलसुबह
मॉर्निंग मैसेज के प्रत्युतर में
पता नहीं कैसे तो
मोबाइल स्क्रीन पर
भीगा सा एक प्रदीप्त चेहरा मुस्काया
कुछ बूंदें छलमलाई
तीखे नयन नक्शों के ऊपर
छिटकते हुए
बूंदों ने टकरा कर सोचा पर वे कह नहीं पाए
हाय ये कैसा विघटन जल के संयोजन का
ऑक्सीजन की लहराती दरिया
छितरा गयी गालों पर
जबकि डिम्पल पर लटकते हुए हैड्रोजन मुस्काया
देवी तुमने हमें आजाद करवाया !
तब तक कुछ और बूंदों ने
जो इतवार के बहाने से
कुछ ज्यादा ही देर तक सोते रहे थे
कुछ देर से जग कर
चकमक चेहरे वाली बाला
जो जस्ट चेहरे को धो कर निहार रही थी आइना
उसके ही
लहराते लटों से ठुमकते हुए छिटके
कह उठे अलसाए आवाज में
झाँक ही लो मुझमें
मेरे प्रिज्मीय अपवर्तन और परावर्तन के वजह से
तुम कह सकते हो
है ये बाला - चंचल चितवन, स्नेहिल और खूबसूरत !
जिंदगी बहती है और बहते हुए ही जाना है
भरे हुए आँखों वाली के
पलकों से ठिठक कर एक सुनहरी बूंद ने कहा
नहीं जान देना है मुझे
प्लीज एक बार पलकों को हौले से समेटो
ताकि
जैसे हो तुम आगोश में
और मैं यानी बूँद समा जाऊं तुम्हारे ही नजरों में
खोना पाना भी तो शायद प्रेम ही है न !
क्या ऐसा सम्भव नहीं है क्या।
1 comment:
बहुत सुंदर रचना
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