था अलिंद के बाएं कोने पर
ऐसा रिक्त स्थान
जहाँ हमने सहेजी
सिर्फ व सिर्फ तुम्हारी मुस्कान
परत दर परत
चिहुंकती चौंकती खिलखिलाती
तो कभी मौन स्मित मुस्कान
ओ मेरे प्रेम
हो अगर इजाजत तो
बस, बहक कर कह दूं
क्यों लगती हो इतनी सुंदर
क्यों डिम्पल बनते गालों पर
छितरा जाती हैं लटें
जैसे गोमती ने बदला हो बहने का रास्ता
क्यों खो जाता हूँ
इन मुस्कानों के भूलभुलैया में,
इमामबाड़े सी हो गयी हो तुम
और मैं एक बेवकूफ पर्यटक
बिना गाइड के, खोया हुआ
तसल्लीबख़्स घूम रहा
हाँ पहुंच ही जाऊंगा अंततः
क्यों होना परेशान
जुल्फों का झटकना ऐसे
जैसे हो उसमें भी
नफासत से भरा लखनवी अंदाज
चिकन के कुर्ते सा
झक्क चमकता हुआ चेहरा
जिस पर थीं कुछ लकीरे
महीन कारीगरी थी बनानेवाले की।
सच में
कहूँ या न कहूँ
तुम्हारी मुस्कुराहटें मेरी हैरानियाँ,
तुम्हारी नादानियाँ मेरी गुस्ताखियाँ,
बिना इजाजत करती रहती है अठखेलियाँ
कहीं नबाबों वाली नबाबी तो नहीं?
4 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति मुकेश जी। प्रेम की नवाबी अदा और नज़ाकत का मोहक चित्रण। हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 07 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बड़ी सुंदरता से लखनवी प्रेम को अभिव्यक्त किया है आपने मुकेश जी ।सुंदर,लाजवाब रचना ।
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