जिंदगी की राहें

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Thursday, May 5, 2016

मैं और मेरा शहर



बैद्यनाथ धाम मंदिर, देवघर

पूर्वा एक्सप्रेस से उतरा ही था
पत्नी बच्चों के साथ ,
अपने छोटे से शहर के बड़े से रेलवे स्टेशन पर ....... !!

लम्बे समयांतराल के बाद,
ट्रेन से उतरते ही लगा जैसे
एकदम से टकराई सौंधी हवा और बोली .. !!

मिले, खिल उठे, दिल और दिमाग
पहुँच गए टावर चौक
बैठ गए, एक छोटी सी चाय की दुकान पर
मैं और मेरा शहर
मेरे शहर का था आर्डर - दो बड़े कुल्ल्हड़ में चाय !!

बात निकली तो दूर तक चली
चमकीली सड़कें व
सरकारी योजनाओं के बखान करते होर्डिंग्स
कुछ थम्स अप / स्प्राईट की गर्मी बढाते होर्डिग्स
दमकते हुए छमक रहे थे !!
इतने तक तो कुछ नहीं
रूपा की अंडर गारमेंट्स के होर्डिग भी स्वागत कर रहे थे
बाबा भोले के नगरी में आने का !!

यातायात के साधनों की बाढ़ थी यहाँ भी
बता रहे थे जैसे पैसे, जेबों से बह रहे हों,
बेशक सड़कों की चौडीकरण की बलि चढ़ चुकी थी
वाहनों के बढती संख्या और अतिक्रमण पर !!
वैसे आज भी सड़कों के किनारे,  नालियों से निकले और फेके गए
गंदगियों के ढेर से छोटे पर्वत, होते हैं निश्चित दूरी पर
शहर की चाल हो चुकी थी चुस्त से सुस्त
हाँ, ट्रेफिक पुलिस की कड़क वर्दियां हो गयी थी चुस्त !!

मोबाइल के टावरों की संख्या व
लेड लाइटों के पिलर्स की भी
संख्या में हो गयी थी बढ़ोतरी
पर, वो बात थी अलग कि उर्जा संरक्षण की बातें भी चलती थी
क्योंकि बिजली अभी भी जाती थी बदस्तूर ... !

रूप रंग बदलता बाजार
टावर चौक से मंदिर तक का मार्ग और उसकी चहल पहल
ठीक जैसे, अब मैं भी पहनने लगा हूँ, जींस की पेंट
वैसे ही मेरे शहर ने भी बदली थी ड्रेस... !!
ज्योतिर्लिग मंदिर की आभा अभी भी वैसी की वैसी, कुछ प्रशासन का जोड़, कुछ पंडो का,
पंक्तिबद्ध हो गए भक्तगण .....
वैसे ही महादेव की गूँज, चहुँ ओर !!

पर, जो भी हो, जितनी भी हो गंदगी या प्रदूषण
हमें तो लगा, जैसे अब भी यहाँ की आबोहवा है ताजा
जैसे बरसों पहले अपने बालों से लहरा कर गिराई थीं मेरे चेहरे पर कुछ ताज़ा बूँदें

कॉलेज नए रंग रोगन में लग रहा था अजूबा सा
तिस पर चारदीवारी भी बन चुकी थी
वो कॉलेज के क्लास से बैठे बैठे
दूर तक देखने की स्वतन्त्रता छिन चुकी थी.....!!

खुद के विकास का तो कोई अता पता नहीं पर
खरगोश की तरह उछल कर हम बेशक पहुँच गए थे महानगर
लेकिन धीरे धीरे ही सही, कछुए की चाल में विकास को प्राप्त कर
मेरा शहर, झपकियों के साथ, सो रहा था ..ऊँघ रहा था ताज़ी ठंडी हवा का मौन साक्षी हो कर !!
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मैं और मेरा शहर चाय के कुल्हड़ के साथ !!

छोटकू से बच्चे के  हाथों  छुटकी  सी चिड़िया

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-05-2016) को "शनिवार की चर्चा" (चर्चा अंक-2335) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar said...

सजीव चित्र खींचा है आपने