मेरे कुछ ज्यादा चलते दिमाग ने
एक दिन, लगाई घोड़े सी दौड़
होगा एक दिन
स्वयं का ख़्वाबों सा घर
खुद के मेहनत के पैसों से
ख़रीदे हुए ईंट, रेत व सीमेंट का !
आभासी, ह्रदय के आईने में
देखा, उसमें कहाँ होगा दरवाजा
कहाँ होगी खिड़कियाँ, रौशनदान भी
गमले रखूँगा कहाँ
ये भी पता था मुझे !!
घर के लॉन में
हरे दूब पर नंगे पाँव चलते हुए
कैसे ओस के बूँद की ठंडक
देगी सुकून भरा अहसास
और तभी, एक गिलहरी पैरों के पास से
गुजर जायेगी
इस्स !! ऐसा कुछ सोचा !
उस आभासी घर के
डाइनिंग टेबल पर बैठ कर
चाय की सिप लेते हुए
खिड़की से दिखते दरख्तों के ठीक पीछे
दूर झिलमिलाती झील के कोने पर
बैठी सफ़ेद फ्लेमिंगो, एक टांग उठाये
कौन न खो जाए उसके खूबसूरती में
आखिर वो मेरे से ही मिलने तो आएगी
माइग्रेट कर के, बोलीविया के तटों से !!
मुझे पता नहीं और क्या क्या सोचा
जैसे बालकनी में
मनीप्लांट के गमले के
हरे पत्ते पर हल्का सफ़ेद कलर
मैं भी उस पत्ते को प्यार से थपकी देते हुए
महसूस रहा था
छमक कर आ रही
बारिश की बूंदों को !!
बहुत सोचने से अच्छी नींद आती है न
फिर ख़्वाबों में खोना या बुनना किसको बुरा लगे
पर, ये प्यारा सा ख़्वाब
फिर, नींद टूटते ही
- पापा!! स्कूल फीस !! आज नहीं दिए, तो फाइन लगेगा !!
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जिंदगी में कितने सारी उम्मीदें, सोच जवान होती रहती है ....... है न !!
3 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
wah....sahaz-saral yatharth darshati prastuti...
बेहद खुबसूरत....इक आस एक ख़ाब इक अहसास और बन जाता कुछ पल बस यूँही ख़ास...!!!
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