मोटी, मत खाया करो भाव
मांसल भरे देह के साथ
हो गयी उम्र तुम्हारी
थोड़ी खुबसूरत ही तो हो
तो, तो क्या हुआ
मुझे तो अभी भी
तुमसे आती है भीनी सी खुशबू
सुरमई रातों वाली
कविता जैसी !!
जब देखो छिटक देती हो
मेरा हाथ
कह देती हो एक पल में
बेशर्म ! परेशान करता है
शरम नहीं आती
पर क्यों नहीं देख पाती
अपनी कजरारी आँखों से
मेरी मदहोश आँखों में
उस ध्रुव तारा से आने वाले
ठंडे प्रकाश जैसा नेह
कुछ प्यारी सी बहती हुई गजल जैसी !
हुंह, जाओ !
समझ गया, नहीं है तुम्हे प्यार व्यार
थोड़ी बालपन सी ठुनकन
क्यों न दिखाऊं
आखिर
भींगते आकाशों का सुख
और ठंडी गुनगुनी धुप
दोनों तो रचा बसा है तुममे
गद्य और पद्य दोनों विधाओं का
प्रेम से भरा तुम में
पढने दो न ये किताब मुझे
उफ़ कुछ तो कहो
मान जाया करो न
ए प्रेयसी!
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क्या इसको प्रेम कविता कहेंगे ?
(मेरी कवितायेँ, ऐसी ही हलके फुल्के शब्दों से जुड़ते हुए बनती है ..............ऐसी ही, बहुत सारी आम लोगो से जुडी कविता के लिए आर्डर करें हमिंग बर्ड :)
5 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (20-09-2014) को "हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे" (चर्चा मंच 1742) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
hardik shubhkanaye mukesh ji ....lekin book mujhse book nahi ho paayee ...!
खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.....
खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.....
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