जिंदगी की राहें

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Wednesday, October 9, 2024

खिड़की




खिड़की के पल्ले को पकड़े
कोने से
जहाँ से दिख रहा था
मेरा वर्गाकार आकाश
मेरे वाला धूप
मेरा ही सूरज व चन्दा भी
मेरी वाली उड़ती चिड़िया भी...

दूर तक नजर दौड़ाए
छमकते-छमकाते पलकों के साथ
आसमान की ओर नजरें थमी
तो जेहन खन-खन बजता रहा
घनघनाती रही बेसुरी सांसे
पर लफ्ज नहीं बुदबुदाते
मोड़कर पलकें
जमीं की ओर
लौटती रही आंखें

ऐसे में, बस
इंतजार अंतहीन हुआ करता है

- मुकेश



1 comment:

Onkar said...

बहुत बढ़िया