बेशक कभी जाहिर न कर पाया
कि करता हूँ प्रेम
या है कोई अलग सा आकर्षण
हां, कभी कहा भी तो वो लगा
ऐसे जैसे
दिया गया हो मित्रवत एप्लिकेशन
पर चाहतों का गुब्बारा उड़ता रहा
चाहते न चाहते
अटकते रहे, स्क्रॉल करते हुए
बातों मे आदरसूचक शब्दों के साथ भी
ढूंढते रहे, गुलाबी चमक
उम्र के ढलान पर
जीते रहे जिंदगी की आभासी शरारतों को
हाँ, मन के अंदर से हर वक्त आई
हल्की सी व्हिसपर करती हुई आवाज कि
किसी शाम बैठेंगे तुम्हारे साथ
चाय की चुस्कियों संग
और फिर कहेंगे धीमे से
कल भी आना, आओगी न...
और ये शाम बराबर आए,
बस इतनी सी रहेगी उम्मीद
ठीक न !
- मुकेश कुमार सिन्हा
6 comments:
सुंदर,भावपूर्ण रचना सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १० सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर
लेखनी में आ ही गए मन के दबे भाव। बहुत सुंदर।
सुन्दर रचना
सुन्दर रचना
बहुत सुंदर
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