पन्ने पलट गए कैलेण्डर के कई बार !!
दोनों तरह के कैलेण्डर थे सामने
एक में सन्डे मंडे बीत रहा
साथ में बीता जुलाई फिर अगस्त
सेकंड सैटरडे के बाद आया था थर्ड वाला मंडे !!
दूसरा था ठाकुर प्रसाद का पंचांग वाला कैलेण्डर
अमावस्या, फिर दूज का चाँद भी दिखा
ईद का चाँद गया .....
अब उम्मीद बची पूर्णिमा की !.
बीतते समय के साथ
उम्मीद थी, यादें भी दरदरा जायेंगीं
करनी पडेंगी रफू
पर ये क्या
तुम्हारी सारी स्मृतियाँ
अब भी
एकदम चटख ........ और मजबूत!!
याद करो, जब पहले कैलेंडर के दूसरे पन्ने पर
मैंने गोला बनाया था, जब मिले थे हम
क्लास बंक करे कंधे पर बैग लटकाएं
कांपते हाथो से पकड़ी थी उँगलियाँ !!
फिर तुमने उसके 36 दिन बाद का गोला लगाया
बोला अब करो इन्तजार इत्ते दिन
ये हिंदी का छत्तीस वाला आंकड़ा भी गज्ज्बे हैं
बिस्तर पर दोनों सोये, जैसे घूर रहे हों दीवाल ....
कोई नहीं, आ जाएगा वो दिन भी....
और फिर पहला बोसा, पहले प्यार का !
कुछ चालाकी भी की, जैसे जेठ कीे पहली एकादशी के दिन का गोला फिर घुमाया
जब चलेंगे हम दोनों .....नदी किनारे घूमने!
दिन महीने साल बदलते जायेंगे ........ सुनाया था याद है न
गाने के दौरान अपने मन माफिक बदल दिया था कैलेण्डर
तुम भी तो थी थोड़ी चालाक
पर तुम्हे मेरे सामने बेवकूफ बन जाने की लग चुकी है लत !!
आखिर प्यार भी तो बेवकूफियां ही है न ...... !!
2 comments:
सुन्दर रचना
विरह में प्रेम और भी अधिक पल्लवित होता है।
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