सफ़र के आगाज में मैं था तुम सा
जैसे तुम उद्गम से निकलती
तेज बहाव वाली नदी की कल कल जलधारा
बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़ती
कंकड़ों में बदलती, रेत में परिवर्तित करती
बनाती खुद के के लिए रास्ता.
थे जवानी के दिन
तभी तो कुछ कर दिखाने का दंभ भरते
जोश में रहते, साहस से लबरेज !!
सफ़र के मध्यान में भी तुम सा ही हूँ
कभी चपल, कभी शांत,
कभी उन्मुक्त खिलखिलता
लहरों की अठखेलियों मध्य संयमित
गंदले नाले की छुवन से उद्वेलित
शर्मसार ...कभी संकुचित
नदी के मैदानी सफ़र सा
बिलकुल तुम्हारे
सम और विषम रूप जैसा !!
तेज पर संतुलित जलधारा
अन्नदाताओं का संरक्षक
खेवनहारों की पोषक
उम्मीद व आकांक्षाओं का
लिए सतत प्रवाह
बेशक होता
अनेक बाधाओं से बाधित
पर होता जीवन से भरपूर
कभी छलकता उद्विग्न हो
विनाशकारी बन
कभी खुशियों का बन जाता संवाहक
सफ़र के आखिरी सप्तक में भी
मद्धम होती कल कल में
थमती साँसे
शिथिल शरीर
मंथर वेग
निश्चित गति से धीरे-धीरे
क्षिति जल पावक गगन समीर में
सब कुछ विलीन करते समय भी
तुम सा ही मुक्त हो जाऊंगा
डेल्टा पर जमा कर अवशेष
फिर हो जायेगी परिणति मेरी भी
आखरी पड़ाव पर
महा समुद्र से महासंगम
बिलकुल तुम्हारी तरह !!!
हे ईश्वर !!
मेरा और नदी का सफ़र
शाश्वत और सार्थक !!
4 comments:
Life is like a river sometimes it fall from the top to bottom sometimes it diverts and finally reaches sea. Our destiny सरकारी नौकरी
बेहतरीन रचना......बहुत बहुत बधाई.....
lovely post .impressive work done by you ,I love your poems very much.-
indian matrimony
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