जिंदगी
टेबल पर रखे चश्मे
फोन के उलझे तारों
और सैनिटाइजर भी
साथ ही, डेस्कटॉप के स्क्रीन
फंसी रह गयी चाभियों में
भागी जा रही।
सोचा था चश्मे से दिखोगी करीब
पर हो चुकी हो बेहद दूर
सुनना चाहता हूँ आवाज
पर उलझते तारों व संचार कनेक्शन ने
वो भी किया दूर
फिर भी चाहतें ऐसी कि
ग्लू स्टिक से चिपका रखा तुम्हारे तस्वीर को
मन के अंधियारे में
ताकि रखूं बेहद पास।
चाभियाँ याद दिला रही
प्रॉब्लम है इग्निशन का
कैसे लौटोगे, ओर आते हुए
दिखी थी लहराती हरियाली भी
जो दिलाती है याद
तुम्हारे अनदेखे चमक का
चलो पी कर बिसलरी जूस या पानी ही
करता हूँ फिर से याद !
पर,
अब भी बार-बार आ रही हिचकी
याद आने का सूचक तो नहीं !
खैर
अपनी किताबों के अंदर की कुछ पंक्तियाँ
आज करके समर्पित
बस इतना ही कहूंगा कि
हाँ, याद आती ही रही हो
बराबर।
3 comments:
बहुत ही सुन्दर सृजन
बहुत सुंदर रचना,हाँ सच बात है हमारे आस पास की चीजें भी हमारी रचना का हिस्सा हो सकती हैं
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