इको करती, गुंजायमान
हमिंग बर्ड के तेज फडफडाते
बहुत छोटे छोटे पर !
फैलाए पंख
सूरज को ताकती सुर्ख चोंच
तो, कभी फूलों के
रंगीन पंखुड़ियों के बीच
ढूँढती पराग कण !!
सूर्योदय की हरीतिमा
बता रही अभी तो बस
हुई ही है सुबह
नीले बादलों भरा आकाश
ताक रहा उसे, जैसे
कह रहा हो ...
अभी कहाँ आराम बदा है
अभी तो मीलों हमको, मीलों हमको चलना है !!
कभी उलझते पाँव
तो, कभी झाड़ियों में
फंसते पंख
या कभी बहेलियों के जाल में फंस कर
हो जाते है विवश
करना होता है
उड़ान का स्थगन !!
टुकुर टुकुर ताकती चिरैया
निहारती
आकाश, मेघ, हवाएं, रौशनी !!
इन्द्रधनुष का सतरंगा संसार भी
शायद इस छुटकी चिरैया की भी
डबडबाती है आँख
शायद उसने कहा
प्लीज, अभी और उड़ना है
नापना है आकाश
बटोरना है पराग
जाने दो न !
पर चिरैया के सपने पुरे हों
जरुरी तो नहीं
उलझने, झाड़ियाँ, बहेलियाँ
कम तो नहीं !!
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8 comments:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.09.2015) को "सिर्फ कथनी ही नही, करनी भी "(चर्चा अंक-2095) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
बहुत सुंदर फ़रियाद
उलझने, झाड़ियाँ, बहेलियाँ
कम तो नहीं !!
सुन्दर रचना
सुन्दर फरियाद , सुन्दर रचना बधाई
सुंदर, प्रभावी रचना, बधाई
प्रकृति के ये सुन्दर खिलौने है पर इनकी पुकार कौन सुनता है ?
बहुत सुंदर
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